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इन भावों का फल क्या होगा से प्रतिक्षण क्षीण हो रहा है; ठीक इसी तरह मानव जीवन भी प्रतिपल मृत्यु की ओर बढ़ रहा है। यह जीवन सूर्य की भाँति ही द्रुतगति से मृत्युरूपी अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है; अतः जीवन का प्रकाश रहते यथा संभव शीघ्र ही आत्मावलोकन कर लेना चाहिए। इन जगत के प्राकृत दृश्यों के देखने में अपने समय को खराब नहीं करना चाहिए।
जिन खोजा तिन पाइयाँ अधिक दुःखद स्थिति नारी के जीवन में अन्य कोई नहीं होती। दुर्दैव से यदि यह दुःखद परिस्थिति विवाह के तुरन्त बाद ही बन जाये, तब तो मानो उस पर विपत्तियों के पहाड़ ही टूट पड़ते हैं। पति के अभाव में सारा जीवन अंधकारमय तो बन ही जाता है, साथ ही और भी अनेक विपत्तियों की घनघोर घटायें घेर लेती हैं।
पुरातन पन्थी नारियाँ अपने अन्धविश्वास के कारण अपनी ही नारी जाति की कितनी कैसी वैरिन बन जाती है - कोई सोच भी नहीं सकता।
और वैसे ही विचार रखने वाले पुरुष भी उन्हीं की हाँ में हाँ मिलाकर उनका साथ देने में दो कदम आगे हो जाते हैं। ____ मांगलिक माने जाने वाले विवाह आदि के नेग-दस्तूरों में महिलायें ही विधवा नारी की परछाईं से परहेज करने लगती हैं। नन्हें-नन्हें बालकबालिकाओं को भी विधवा के पास नहीं फटकने देतीं। __कोई कटु सत्य सुन सके या न सुन सके, सह सके या न सह सके, पर जो सुख-दुःख होना होता है, वह तो होकर ही रहता है।
वैसे तो नारी का सुहाग छिन जाना नारी जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। वह धैर्य धरे भी तो कैसे धरे? तत्वज्ञान एक ऐसा सहारा है, जिसके बल पर बड़ी से बड़ी प्रतिकूलता में भी समतापूर्वक रहा जा सकता है। अतः इस दिशा में प्रयास होना चाहिए।
(३०) जो व्यक्ति अपनी पत्नी और सन्तान का सही ढंग से भरण पोषण, देख-रेख और संरक्षण जैसे अनिवार्य कर्त्तव्य का पालन नहीं कर सकता, उसे शादी-ब्याह रचाकर पत्नी और संतान के सुख की कल्पना करने का भी
अधिकार नहीं है। अधिकार और कर्त्तव्य दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। कर्त्तव्य भूलते ही अधिकार भी स्वतः ही समाप्त हो जाता है।
जंग जीतना आसान है, पर व्यसनों से पार पाना कठिन है। जो दिन में दस-दस पैग पीता हो, दिन-रात शराब के नशे में धुत्त रहता हो और मुँह से रेलगाड़ी के कोयले के इंजन की तरह सिगरेट का धुंआ छोड़ता ही रहता हो, दिनभर आँखों में नींद भरे अर्द्ध विक्षिप्त सा पड़ा रहता हो, जिसका न खाने-पीने का सही समय हो, न सोने-जागने का कोई निश्चित समय । तेज मसालों का तीखा गरिष्ठ भोजन करना और नित्य नई-नई नगर वधुओं के द्वार पर दस्तक देना ही जिसका काम हो - ऐसा व्यक्ति फिलहाल जो भी, जितना भी त्याग करता है, अच्छा ही है। थोड़े से त्याग की शुरुआत भी उसे धीरे-धीरे सन्मार्ग पर ला सकती है।
बड़े से बड़े धर्मात्मा भी धर्मात्मा बनने के पहले तो पापी ही थे। पापी ही तो पाप का त्याग कर एक न एक दिन पुण्यात्मा और धर्मात्मा बनते हैं। श्रीकृष्ण के पुत्र शंभुकुमार एवं राजा मधु की पौराणिक कथा इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। शंभुकुमार ने अपने पापों का प्रायश्चित करके आत्म साधना के अपूर्व पुरुषार्थ द्वारा गृहस्थपना छोड़कर मुनिधर्म अंगीकार कर निज स्वभाव साधन द्वारा उसी भव में घातिया-अघातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान एवं मोक्ष प्राप्त किया।
सभी महान आत्माएँ भी तो कभी न कभी इसी तरह भूले-भटके ही थे। तभी तो वे भी संसार में जन्म-मरण करते रहे। जब संभले-सुधरे तभी तो उन्हें भी मोक्ष मिला। अतः पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। पापी तो
जैसे इस सूर्य की इहलीला समाप्त हो रही है, इसका प्रकाश व प्रताप
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