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________________ ६६ जिन खोजा तिन पाइयाँ योगदान नहीं होता। ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। (२०) शेयरबाजार का कुछ स्वरूप ही ऐसा है कि जब भाव चढ़ते हैं तो अनायास ही आसमान छूने लगते हैं और जब उतरते हैं तो अनायास ही पाताल तक पहुँच जाते हैं। कब/क्या होगा, पहले से कुछ ठीक से अनुमान भी नहीं लगता। इसकारण लोगों के परिणामों में बहुत उथल-पुथल होती है, हर्ष-विषाद भी बहुत होता है। दोनों ही स्थितियों में नींद हराम हो जाती है। व्यक्ति सामान्य नहीं रह पाता। अतः बिजनेस वही सर्वोत्तम है जो अशान्ति और आकुलता का कारण न हो। (२१) अपने विचित्र पाप परिणामों के फल से अनजान व्यक्ति ही उन पाप परिणामों में निरन्तर रमा रहता है और जिसे यह भान हो जाता है कि वे परिणाम काले नाग जैसे जहरीले हैं तो फिर वह उनसे बचने का उपाय सोचता है। (२२) तत्त्वज्ञान का समझना कोई बड़ी बात नहीं है; पर समझने की रुचि एवं तदनुरूप भावों का होना अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु संसार का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि यहाँ सबको सभी प्रकार की अनुकूलतायें नहीं मिल पातीं; क्योंकि ऐसा अखण्ड पुण्य सबके पास नहीं होता। अतः सुअवसर का लाभ लेने से नहीं चूकना चाहिए। इन भावों का फल क्या होगा से हये, स्वपर कल्याण किया । यही राजमार्ग है। इसे नकारा नहीं जा सकता। (२५) दूसरों की हँसी उड़ाना जितना आसान है, उसका सही समाधान खोज कर सन्तुष्ट कर पाना उतना ही अधिक कठिन है। (२६) चाहे कोई बालक हो या वृद्ध, ज्ञानी हो या अज्ञानी, नारी हो या पुरुष, कर्म वर्गणाएँ तो सबको योग और कषायों के अनुसार एक जैसी ही आस्रवित होती हैं और बँधती हैं। किसी की उम्र का कोई लिहाज नहीं करती और न समझदार गैर समझदार में ही फर्क करती हैं। कर्मवर्गणाएँ तो सबको मिथ्यात्व एवं कषाय भावों के अनुसार बंधती ही हैं। कषायों की हीनाधिकता के अनुसार समय पर सबको अपना फल भी देती ही हैं। इसीलिए तो कहते हैं कि बाल्यकाल से ही यह जानकारी होना जरूरी है कि - कैसे-कैसे भावों से किसप्रकार का कर्मबंध होता है और उनका क्या फल होता है? धर्म-अधर्म की सही पहचान न होने से अधर्म को ही धर्म समझकर उसका धारण करते रहने से अन्ततोगत्वा निगोद में जाना पड़ता है। पहले कभी ऐसी ही खोटी परिणति रही होगी, जिसका फल अभी भोग रहे हैं और अब भी यदि इसी स्थिति में यह दुर्लभ मनुष्य भव बीत गया तो फिर अनन्तकाल तक इसी भव सागर में गोते खाने पड़ेंगे। (२७) जिस प्रकार पाँचों उंगलियाँ एक जैसी नहीं होगी; उसी प्रकार सभी व्यक्ति भी एक जैसे नहीं होते, उनकी रुचियाँ एक जैसी नहीं होती। (२८) धर्म करने की कोई निश्चित उम्र नहीं होती। धर्म तो जीवन का अभिन्न अंग होना चाहिए। क्या पता कब/क्या हो जाए? अंत में धर्म ही तो हमारा सच्चा साथी है। (२९) नारी के जीवन में सबसे बड़ा दुःख उसके वैधव्य का होता है। इससे व्यक्ति के वर्तमान ज्ञान में जब जो समझने की योग्यता हो, तभी वह बात उसकी समझ में आती है, फिर भी धर्मप्रेमी जीवों को भूमिकानुसार बार-बार समझाने का भाव आये बिना नहीं रहता। (२४) तीर्थंकरों तक ने पहले शादी-विवाह किये, बेटा-बेटी हुये, पारिवारिक उत्तरदायित्व संभाला, समाजसेवा की, राज-पाट संभाला; तत्पश्चात् दीक्षित (३५)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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