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जिन खोजा तिन पाइयाँ
अज्ञान का ज्ञान न होना, अपने अज्ञान को स्वीकार न करना।
(१२) जब स्वयं की तैयारी होती है तो साधनों की भी कमी नहीं रहती। इसे ही शास्त्रीय शब्दों में ऐसा कहते हैं कि - "जब अपने उपादान की तैयारी होती है तो निमित्त कारण तो आसमान से उतर आते हैं। देखो न! भगवान महावीर स्वामी के दस भव पूर्व सिंह की पर्याय में जब उपादान में सम्यग्दर्शन होने की तैयारी हो गई तो उपदेश देने के निमित्त के रूप में संजय और विजय नाम के चारण ऋद्धिधारी मुनिराज आसमान से उतर कर आ ही गये।"
प्रत्येक विषय को जानने की ज्ञान पर्यायगत योग्यता स्वतंत्र होती है। और अब तो वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि बुद्धिमान व्यक्ति की बुद्धि भी हर क्षेत्र में एक जैसी कार्य नहीं करती। एक विषय के विशेषज्ञ व्यक्ति दूसरे विषय में सर्वथा अनभिज्ञ भी देखे जाते हैं; क्योंकि प्राप्त ज्ञान में जिस विषय को जानने की योग्यता होती है; वही विषय उस ज्ञान का ज्ञेय बनता है, अन्य नहीं।
(१४) अपने बारे में, आत्मा-परमात्मा के बारे में, संसार व भोगों की क्षणभंगुरता एवं संसार की असारता के बारे में विचार करने से माथा खराब नहीं होता; बल्कि ऐसे विचार से अनादिकाल से खराब हुआ माथा ठीक होता है।
इन भावों का फल क्या होगा से तत्त्वज्ञान संबंधी अज्ञानता से उसका जन्म होता है और वह स्वयं आकुलता की जननी है। तथा चिन्तन वस्तुस्वरूप की शोध-खोज का सर्वोत्तम साधन है, आत्मोपलब्धि का और अज्ञानजन्य आकुलता को मेटने का अमोघ उपाय है।
(१७) परामर्श मानने के लिये कोई किसी को बाध्य नहीं कर सकता, करना भी नहीं चाहिये; किन्तु विचारों के आदान-प्रदान से कभी किसी को कुछ न कुछ लाभ ही होगा। अतः परामर्श करने से संकोच भी नहीं करना चाहिए। विचारशील व्यक्तियों में मतभेद तो होते ही हैं, हाँ इनमें मनभेद नहीं होना चाहिये।
(१८) गम्भीर, विचारशील और बड़े व्यक्तित्व की यही पहचान है कि नासमझ और छोटे व्यक्तियों की छोटी-छोटी बातों से प्रभावित नहीं होते, किसी भी क्रिया की बिना सोचे-समझे तत्काल प्रतिक्रिया प्रगट नहीं करते। अपराधी पर भी अनावश्यक उफनते हैं, नाराज नहीं होते, बल्कि उसकी बातों पर, क्रियाओं पर शान्ति से पूर्वा पर विचार करके उचित निर्णय लेते हैं, तदनुसार कार्यवाही करते हैं और आवश्यक मार्गदर्शन देते हैं।
(१९) जिसद्रव्य में जब जो भी कार्य होता है, वह स्वयं द्रव्य की अपनी तत्समय की उपादानगत योग्यता से ही होता है। वह योग्यता ही कार्य का समर्थ उपादान है। यह क्षणिक उपादान कारण पूर्ण स्वाधीन है, स्वतंत्र है, स्वयंसिद्ध है। उसे पर की कतई/कोई अपेक्षा नहीं है। ___ उपादान की तत्समय की योग्यता कहो, कार्य सम्पन्न होने का स्वकाल कहो, क्रमबद्ध पर्याय कहो, होनहार कहो, पुरुषार्थ कहो, काललब्धि कहो, पर्यायगत धर्म कहो - सब एक ही बात है, सबका एक ही अर्थ है।
यद्यपि कार्य सम्पन्न होने के काल में कार्य अनुकूल परद्रव्य रूप निमित्त अवश्य ही होते हैं; परन्तु उन निमित्तों का कार्य के सम्पन्न होने में कतई कोई
यदि तुम भी अपने में होने वाले भावों के बारे में विचार करोगे और उनसे होने वाले भावों के बारे में चिन्तन करोगे तो तुम्हारे जीवन में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हो सकता है और अनोखे आनन्द की झलक आ सकती है।
चिन्ता और चिन्तन में मौलिक अन्तर है, चिन्ता अज्ञान की उपज है,
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