________________
१५॥ हे अजितनाथ ! आपने निज आत्मा को जानकर ही क्रोध शत्रु को जीता है। निज आत्मा की पहचान | | कर , निज का ही ध्यान धर उत्तमक्षमा की प्राप्ति की है।
हे संभवनाथ ! आपने जगत को यह बताया है कि परमात्मा कोई अलग नहीं होते। यह आत्मा ही परमात्मा है।' जिसे आपके बताये इस सिद्धान्त का ज्ञान हो जाता है, उसे मान कषाय की उत्पत्ति ही नहीं होती है; क्योंकि छोटे-बड़े की भावना ही तो मान का आधार है और निज परमात्मा की साधना ही समस्त साधनाओं में सारभूत है। ___ हे अभिनन्दननाथ ! आपने बताया है कि निज आत्मा को ही आत्मा जानना और जड़ शरीर को आत्मा नहीं मानना ही सच्ची सरलता है, जो आत्मा के आश्रय से ही प्रगट होती है। वह सरलता ही साधकों की संगिनी एवं आनन्द जननी है।
हे सर्वदर्शी सुमतिनाथ ! आपने बताया कि आत्मा आनन्द का रसकंद है, शक्तियों का संग्रहालय है, ज्ञान का घनपिण्ड है, निर्लोभ है, निर्दोष है, निष्क्रोध है, निष्काम है, परम पावन है, पतित पावन है। जो ऐसे आत्मा की साधना करता है उसे ही पर्याय में साध्यरूप गुण प्रगट होते हैं।
हे पद्मप्रभ ! जगत के मोही प्राणी हँसने में, परिहास करने में आनन्द मानते हैं, किन्तु आपने बताया है कि ये हास्य कषाय भी परिग्रह है। कषायें और पाप दुःखमय हैं। दुःख के कारण हैं। इनमें सुख कहाँ ? ऐसा बताकर आपने जगत को पतित पावन बना दिया है।
हे रतिरहित सुपार्श्वनाथ ! लोक में उसे ही सच्चा पारस कहते हैं जो लोहे को भी पारस बना दे। वह रति-रागरहित आत्मा ही कारण परमात्मा है, जिसके आश्रय से वीतरागी कार्य परमात्मा बनते हैं।
हे अरतिरूप कलंक से रहित अकलंक चन्द्रप्रभ ! आपने बताया कि यदि स्वयं को न जाननेवाले अज्ञानीजन अंधयारी अमावस हैं तो ज्ञानी आत्मा प्रकाशपुंज पूर्णमासी हैं।
v_Favo_F 5 FEE