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________________ ह रि वं श 5 5 क हे शोक रहित सुविधिनाथ ! आप सौ इन्द्रों द्वारा वन्दनीय हो, शिवमग बतानेवाले हो, सर्वगुण सम्पन्न हो, सर्वज्ञ हो, भ्रमरोग का नाश करनेवाले हो और संतोष धारण करनेवाले हो । हे अभय स्वभावी शीतलनाथ ! आप स्वयंभू हो, चन्दन की तरह शीतल हो, जो भक्तिभाव से आपका गुणगान करता है, उसके जीवन में कोई भ्रम नहीं रहता । हे समभाव स्वभावी श्रेय जिन ! आप सबके लिए समान रूप से श्रेयस्कर हैं । हे वेदविरहित वासुपूज्य ! अज्ञानी जीव स्त्री-पुरुष वेद की वासना में सुख मान रहे हैं, जबकि रति-राग | तो आग है, वासना ज्वाला है, उसमें सुख कहाँ ? हे वेदविरहित विमल जिन ! बस, जिनके विमल श्रद्धान में, ज्ञान में ध्यान में एक आत्मा ही बस रहा है, द्रव्य-गुण- पर्याय के स्वरूप का जिसे यथार्थ ज्ञान है। ऐसे विमल जिन आप हमारे ध्यान में विचरण करें। हे अनन्तनाथ भगवन्त ! तुम शिव कामनी के कंत हो, संसार-समुद्र के अन्त हो, तुम में अनन्त शक्तियाँ हैं, तुम स्वयं अखण्ड - अनन्त स्वरूप हो । जो आपके स्वरूप को ध्याते हैं, वे भी आप जैसे बन जाते हैं । हे सद्धर्ममय धर्मनाथ ! आप सद्धर्म के आधार हो । भवभूमि को त्यागकर भवजलधि से पार हो गये हो । हम भी आपके समान धर्माराधना करके आप जैसे बन जायें । हे शान्ति-कुन्थु-अरनाथ जिनेन्द्र ! आपने करोड़ों घोड़े, लाखों हाथी, हजारो रानियाँ महल, धन, धान्य आदि चक्रवर्ती जैसी सम्पदा को तृणवत् त्याग कर स्वयं मोक्ष की राह ली और दूसरों को भवपार करनेवाली देशना दी है। हे द्विपद त्यागी मल्लिनाथ ! आपने मनमल्ल का मर्दन कर नौकर-चाकर, दास-दासी का त्याग कर स्वयं स्वावलम्बी होकर और वस्तुस्वातंत्र्य का पाठ पढ़ा कर जगत को भी स्वावलम्बी बनना सिखाया है । हे चतुष्पदत्यागी मुनिसुव्रतनाथ ! आपने मन मल्ल का मर्दन कर हाथी, घोड़ा, रथ आदि का सर्वथा त्याग कर दिया तथा जगत के स्वतंत्र एवं क्रमबद्धपरिणमन को समझाया है। आपकी कैसे क्या स्तुति करें ? व व द्वा बी स ती र्थं क र स्तु ति
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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