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________________ ९७ ह रि वं श क 55 था यानत्यागी निजपदविहारी नमिनाथ ! वर्तमान में आप ही धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हैं, आप धर्मधारी धर्ममय और धर्मात्मा हैं तथा आपने जगत को बताया है कि सभी आत्मा परमात्मा हैं । कोई किसी से कम नहीं है । हे भावी तीर्थंकर नेमिनाथ ! आप ऐसा जानकर कि 'प्रत्येक द्रव्य पर से पूर्णतः पृथक् है और अपने में त्रिकाल मगन है, शारीरिक पद्मासन आदि और चौकी - पटा आदि जड़ द्रव्यों के आसन-संस्तर आदि का आलम्बन त्यागकर स्वयं स्वाधीन हो गये हों और सबको यही सन्मार्ग दिखायेंगे।' आपको नमस्कार हो । हे भावी तीर्थंकर पार्श्वप्रभु ! आत्मा तो स्वभाव से त्रिकाल अचेलक ही है, वह तो वस्त्रादि धारण करता ही नहीं है और जो वस्त्रधारी शरीर है वह मैं हूँ नहीं - ऐसा जानकर आप स्वयं भी वस्त्रों के ग्रहण -त्याग के विकल्पों से शून्य होंगे और जगत को भी आत्म के अचेलक स्वभाव से परिचित कराकर पर्याय में अचेलक होने का यह अनुपम मार्ग बतायेंगे। धन्य हैं आप ! इसप्रकार चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति कर वसुदेव और गंधर्वसेना रथ पर सवार होकर पुन: चम्पापुरी में वापिस आये। नर्तकी पर आकर्षित होने के भावों को गंधर्वसेना ने परख लिया था, इसकारण वह वसुदेव से रूठ गई थी, किन्तु वसुदेव ने किसीतरह उसे मना लिया । व 10 (2) to to hus कुछ समय बाद उस नृत्य करनेवाली कन्या नीलयंशा के द्वारा भेजी गई एक वृद्धा विद्याधरी वसुदेव के पास आई, जब वे महल में एकान्त में अकेले बैठे थे। उसने आते ही प्रथम तो कुमार को आशीर्वाद दिया और फिर बोली - हे वीर ! मैं आपको विद्याधरों से सम्बन्धित कुछ ऐसी बातें बताना चाहती हूँ, जो संभवत: हे वर्तमान चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी ! आप जगत को यह बतायेंगे कि - "ये पुण्य| पाप के विकल्प जीवों को जगत में अटकाते हैं, ८४ लाख योनियों में भटकाते हैं । सुख-शान्ति का मार्ग बी पुण्य-पाप से परे है, पुण्य-पाप का प्रवाह तो संसार-सागर की ओर जाता है।" इस धर्म के मर्म को समझा कर आप जीवों को सन्मार्ग पर लगायेंगे, अतः प्रभो ! आप ही सच्चे सन्मतिदाता होंगे। व स ती र्थं क स्तु ति
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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