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________________ | Fav to F कुमार वसुदेव चम्पापुरी नगरी में अपनी पत्नी गन्धर्वसेना के साथ सुख से रहते थे। अष्टाह्निका पर्व में महोत्सव मनाने हेतु देवों और विद्याधरों के समूह नन्दीश्वर द्वीप और सुमेरुपर्वत आदि स्थानों पर तो जाने ही लगे। तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य के गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणकों की पावनस्थली होने से चम्पापुरी में भी देव और विद्याधर आये। चम्पापुरी के नगरवासी भी अपने राजा के साथ नगर के बाहर निर्मित वासुपूज्य जिनमन्दिर में गये । कुमार वसुदेव भी गन्धर्वसेना के साथ रथ पर आरूढ़ हो भगवान जिनेन्द्र की पूजा करने निकले। जिनमन्दिर के सामने मातंग कन्या के वेष में नृत्य करती हुई एक श्यामल वर्णयुक्त सर्वांग सुन्दर चंचल युवती शोभा में श्री, घृति, बुद्धि, लक्ष्मी एवं सरस्वती देवियों के समान जान पड़ती थी। अनेक प्रकार के रस, अभिनय और नेत्रों द्वारा नाना हाव-भाव अभिव्यक्त करनेवाली उस नर्तकी को गन्धर्वसेना के साथ कुमार वसुदेव ने देखा। नर्तकी को देखते ही कुमार और नर्तकी परस्पर एक-दूसरे पर मोहित हो गये, आकर्षित हो गये। यह देख गन्धर्वसेना ने अपने नेत्र ईर्ष्या से संकुचित कर लिए तथा सारथी को आदेश दिया कि हे सारथी ! शीघ्र ही रथ को आगे ले चलो। आदेश पाते ही सारथी ने रथ को वेग से बढ़ाया और जिनमन्दिर जा पहुंचे। वहाँ भक्तिभाव से जिनेन्द्र के दर्शन-पूजन, सामायिक आदि सम्पूर्ण धार्मिक क्रियाएँ करके अन्त में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करते हुए उन्होंने कहा - __ हे आदिनाथ भगवान ! आपने अनादिकालीन मोह का (मिथ्यात्व का) नाश किया है, अपने आनन्दमय त्रिकाल ज्ञायकस्वभावी निज कारणपरमात्मा का दर्शन कर, उसे जानकर उसे ही अपना लिया है, उसी में तन्मय हो गये हों एवं अपने रत्नत्रय स्वरूप को प्राप्तकर स्वयं कार्यपरमात्मा बन गये हो। मैं भी आपका पथानुगामी बनकर आप जैसा बनना चाहता हूँ। EERNE
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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