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________________ रि वं १५. क श उदारचरित्र, अत्यन्त लोकप्रिय यदुवंशियों में शिरोमणि वसुदेव ने विद्याधरों के कुल में उत्पन्न, बड़ेबड़े राजाओं की विभूति को तिरस्कृत करनेवाले वैभव सम्पन्न चारुदत्त को देख उनसे पूछा - "हे पूज्य था ! आपके भाग्य और पुरुषार्थ को सूचित करने वाली ये सम्पदायें आपने किस तरह प्राप्त कीं? तथा यह बताइए | कि यह प्रशंसनीय विद्याधरी गान्धर्वसेना आपके भवन में निवास करती हुई मेरे कानों में अमृत की वर्षा क्यों कर रही है ? ५ क वसुदेव के द्वारा इसतरह पूछे जाने पर चारुदत्त बहुत ही प्रसन्न हुआ और आदर के साथ कहने लगा कि हे धीर! मैं तुम्हें अपना पूर्व वृतान्त कहता हूँ । चम्पापुरी नगरी के सेठ भानुदत्त को पुत्र की प्रतीक्षा थी। एक बार उन्होंने चारणऋद्धिधारी मुनिराज से पूछा - मुनिराज ने उन्हें आश्वस्त किया कि - तुम्हें शीघ्र ही उत्तम पुत्र की प्राप्ति होगी और कुछ समय बाद ही मेरे रूप में उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। उनके द्वारा मेरा नाम 'चारुदत्त' रखा गया। मेरे माता-पिता ने मेरे जन्म का बड़ा भारी उत्सव मनाया। ज्यों-ज्यों मैं बड़ा होता गया; मुझे अणुव्रतों की दीक्षा के साथसाथ अनेक कलाओं की शिक्षा दी गई। ज्यों-ज्यों मैं कलाओं में कुशलता प्राप्त करता गया, त्यों-त्यों माता-पिता का हर्ष बढ़ता गया । एक बार मैं अपने मित्रों के साथ क्रीड़ा करता हुआ रत्नमालिनी नदी के तट पर गया। वहाँ मैंने किनारे पर एक ऐसा स्थान देखा, जहाँ मेरे पहले कोई दम्पत्ति पहुँचे थे; परन्तु वहाँ पहुँचने पर रास्ते में उनके पैरों के चिन्ह नहीं उछले थे । इसकारण मुझे किसी के द्वारा विद्याधर दम्पत्ति के अपहरण होने की शंका हुई। | मैं और आगे बढ़ा। वहाँ मैंने उस विद्याधर की सूनी रतिशैया देखी। थोड़ा और आगे बढ़ने पर एक वनप्रदेश से ठ पु त्र चा रु द त्त ५
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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