________________
८५
ह
रि
वं
श
क
था
में वृक्ष पर वह विद्याधर बंधा देखा, उसके बन्धन काट कर मैंने उसे वृक्ष से छोड़ा तो छूटते वह बिना कुछ | बोले उत्तर दिशा की ओर दौड़ा, जहाँ से उसकी पत्नी की रोने की आवाज आ रही थी। थोड़ी ही देर में शत्रु द्वारा हरण की गई अपनी पत्नी को वह छुड़ाकर ले आया और बड़े आदर के साथ मुझसे बोला - हे भद्र ! आपने हमारे प्राण बचाये, हम आपके इस उपकार को कभी नहीं भूल सकते हैं।
विद्याधर ने अपना परिचय देते हुए आगे कहा - " मेरा नाम अमितगति है । शिवमन्दिर नगर निवासी राजा महेन्द्रविक्रम मेरे पिता हैं। धूमकेतु और गौरमुण्ड नामक विद्याधर मेरे मित्र हैं। एक बार मैं उन दोनों मित्रों के साथ हीमन्त पर्वत पर आया था । वहाँ एक हिरण्यरोम तापस की सुकुमारिका नाम की अति सुन्दर युवा पुत्री थी। मेरा सुकुमारिका के साथ विवाह हो गया। मुझे ऐसा लगा कि मेरा मित्र धूमकेतु भी इसे | चाहता है; अतः मैं पत्नी की रक्षा में पूर्ण सजग एवं सावधान रहकर धूमकेतु के साथ विहार करता था; परन्तु | एक दिन जब हम दोनों सो रहे थे, तब वह धूमकेतु मुझे वृक्ष पर कीलित करके मेरी पत्नी सुकुमारिका को | हर ले गया। आपने वृक्ष से बंधे मेरे बन्धन काटकर मुझे छुड़ाया और मैं उस धूमकेतु से अपनी नवविवाहिता पत्नि को छुड़ाकर लाया हूँ। यह आपका मुझ पर बहुत बड़ा उपकार है, अतः आप मुझे सेवा का अवसर अवश्य दें।" ऐसा कह एवं सबतरह से सहयोग देने का संकल्प कर वह विद्याधर दम्पति आकाश मार्ग से अपने गन्तव्य स्थान की ओर चला गया ।
" तरुण होने पर माँ के आग्रहवश मैंने अपने मामा की मित्रवती कन्या के साथ विवाह कर तो लिया । मुझे शास्त्र स्वाध्याय करने में विशेष रुचि होने से अपनी पत्नी में मुझे जरा भी रुचि नहीं थी। इस बात की | चिन्ता मेरी माँ को अधिक रहा करती। मेरी माँ चाहती थी कि मैं सांसारिक राग-रंग में रमू । ऐसा न हो कि मैं मुनि होकर वनवासी बन जाऊँ । एतदर्थ उन्होंने मेरे काका रुद्रदत्त को मेरे साथ लगा दिया। मेरे काका | रुद्रदत्त विषयों में आसक्त और सातों व्यसनों में पारंगत थे ।
इसी चम्पानगरी में एक कलिंगसेना नाम की वेश्या थी । उसकी वसंतसेना नाम की सर्वांग सुन्दर नृत्यगीत आदि कलाओं में कुशल नवयौवना पुत्री थी ।
से
142 10 159 1 5
पु
त्र
चा
रु
द
त्त
५