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|| समन्तभद्र, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य अकलंकदेव एवं आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी पण्डित जयचन्दजी
छाबड़ा, पण्डित दौलतरामजी आदि परमश्रद्धेय पुरुषों द्वारा लिखित ग्रन्थों का अवलम्बन भी लिया है। एतदर्थ इन सबके प्रति शत-शत नमन। ___आचार्य शिवभूति मुनिराज को स्मरण करते हुए सर्वप्रथम 'तुषमासं घोषन्तो' की नीति पर स्व-पर | भेदज्ञान कर अपने ज्ञायकस्वभावी आत्मा में एकाग्र होकर मुक्तिमार्ग की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन की ओर अग्रसर हों।
इसी पावन उद्देश्य को लक्ष्य में लेकर प्रस्तुत हरिवंश कथारूप गागर में बृहद् हरिवंशपुराण रूप सागर को समेटने का प्रयत्न किया है।
पृष्ठभूमि पढ़ने से पुराण की विषयवस्तु समझने में सुविधा रहेगी, अत: पृष्ठभूमि पढ़कर ही ग्रन्थ का स्वाध्याय प्रारंभ करें। आशा है पाठक इस कृति का रुचिपूर्वक स्वाध्याय कर अपने कल्याण के पथ में आगे बढ़ेंगे
- रतनचन्द भारिल्ल
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जो उन वीतरागी देव के पवित्र गुणों का स्मरण करता है, उसका मलिन मन स्वत: निर्मल हो जाता है, उसके पापरूप परिणाम स्वत: पुण्य व पवित्रता में पलट जाते हैं। अशुभ भावों से बचना
और मन का निर्मल हो जाना ही जिनपूजा का, जिनेन्द्र भक्ति का सच्चा फल है। ___ ज्ञानी धर्मात्मा लौकिक फल की प्राप्ति के लिए पूजन-भक्ति नहीं करते । वे तो जिनेन्द्रदेव की मूर्ति के माध्यम से निज परमात्मस्वभाव को जानकर, पहिचानकर, उसी में जम जाना, रम जाना चाहते हैं। ऐसी भावना से ही एक न एक दिन भक्त स्वयं भगवान बन जाता है।
- इन भावों का फल क्या होगा, पृष्ठ-६