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७७ | दोनों पत्नियों को वहीं छोड़ पुनः मिलने का आश्वासन देकर अज्ञातवास में चले गये । मार्ग में जाते
हुए उन्होंने एक बहुत बड़ी अटवी में हंस, सारस तथा कमलों से सुशोभित एक सुन्दर सरोवर देखा। | वहाँ उन्होंने अपनी प्यास बुझाई और स्नान किया, तत्पश्चात् जल को इसतरह तरंगित किया कि जिससे | मृदंग के समान शब्द निकलता था। उस शब्द को सुनकर वहाँ सोया हुआ एक बड़ा हाथी क्रोधित होकर खड़ा हो गया। मारने को आगे बढ़े हुए उस क्रोधित हाथी को वसुदेव ने वश में करके उसके दांतों पर झूले की तरह झूलकर अपना बल-पराक्रम प्रदर्शित किया और उस पर सवार हो गये।
बलवान हाथी को वश में करने वाला बहादुरी का कार्य एकान्त में हुआ था, इसकारण वसुदेव अरण्यरुदन जैसा लगा। वे सोचने लगे - “यदि यह काम जनसमूह के बीच में शौर्यपुर में हुआ होता तो लोग धन्य-धन्य कहने के लिए मुखर हो जाते, धन्यवाद के स्वर से आकाश गूंज जाता।"
वसुदेव यह विचार कर ही रहे थे कि उसी समय दो धीर-वीर विद्याधर हाथी के मस्तक पर बैठे वसुदेव का अपहरण करके उठा ले गये और उसे विजयार्द्ध पर्वत के उपवन में छोड़ गये । वहाँ जब वसुदेव अशोक वृक्ष के नीचे शोकरहित सुख से बैठ गये तब उन विद्याधर कुमारों ने वसुदेव को नमस्कार कर कहा - "हे स्वामिन् ! तुम यहाँ अशनिवेग नामक विद्याधर राजा के आदेश से हमारे द्वारा लाये गये हो । उसे तुम अपना श्वसुर समझो। मेरा नाम अर्चिमाली कुमार और यह मेरा साथी वायुवेग है" - ऐसा कहकर एक तो वही वसुदेव की रक्षा में खड़ा रहा और दूसरे ने राजा अशनिवेग के पास जाकर कहा - "हे स्वामिन्! हाथी को मर्दन करनेवाले धीर-वीर विनीत और नवयौवन से सुशोभित कुमार को हम यहाँ ले आये हैं।" यह समाचार जानकर अशनिवेग हर्ष विभोर हो गया और समाचार लाने वाले को अपने आभूषण उतारकर पुरस्कार में दे दिये। ___ वसुदेव को सम्मानपूर्वक नगर में लाया गया। शुभ मुहूर्त देखकर अपनी यौवनवती सर्वगुण सम्पन्न श्यामा नामक बेटी का वसुदेव के साथ विवाह कर दिया। नवदम्पत्ति वहाँ सुख से अपना समय बिताने
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