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________________ || को लूटने लगा। अन्त में सैनिकों द्वारा मारा गया। ह || देव-द्रव्य हड़पने और सातव्यसनों के सेवन के परिणामस्वरूप वह रुद्रदत्त तैंतीस सागर तक सातवें नरक में गया, जहाँ भयंकर दुःख भोगकर वहाँ से निकलकर संसार में परिभ्रमण करता हुआ कदाचित् पापकर्म के उपशम से हस्तिनापुर में गौतम नामक महादरिद्र मनुष्य हुआ। इधर-उधर भिक्षावृत्ति करके पेट-पालते हुए | उसे समुद्रदत्त नामक मुनिराज के दर्शन हो गये। वह उनके चरणों में वन्दना कर बैठ गया और अपने दुःखों को कहकर उनसे मुक्त होने का उपाय पूँछने लगा। मुनिराज ने उसे भव्य जानकर जिनधर्म का उपदेश दिया और अपने पास रख लिया। जब वह तत्त्वज्ञानी हो गया तो उसे मुनिधर्म की दीक्षा दे दी। गौतम ने मुनिव्रत धारण कर एक हजार वर्ष तक कठिन तपस्या की उसके प्रभाव से उसे बीजबुद्धिऋद्धि उपलब्ध हो गई। गुरु समुद्रदत्त मुनि दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप - इन चार आराधनाओं की आराधना कर छठे ग्रैवेयक के सुविशाल नामक विमान में अहमिन्द्र हुए और उनके शिष्य गौतम मुनि ने पचास हजार वर्ष तप किया। अन्त में बीजबुद्धि के धारक गौतम मुनि भी अट्ठाईस सागर की आयु प्राप्त कर उसी सुविशाल-विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ से चलकर गौतम का जीव तू तो अन्धकवृष्टि हुआ और गुरु मुनि समुद्रदत्त का जीव मैं सुप्रतिष्ठित हुआ हूँ। चाहे इसे मानवीय मनोविज्ञान कहो या मानवीय कमजोरी, पर यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अधिकांश व्यक्ति दूसरों की घटनायें सुनते-सुनते स्वयं अपने जीवन की घटनाएँ सुनाने को उत्सुक ही नहीं आतुर तक हो उठते हैं और कभी-कभी तो भावुकतावश न कहने योग्य बातें भी कह जाते हैं। जिनसे वाद-विवाद बढ़ने की सम्भावना हो, ऐसी बातें कहने से भी अपने को रोक नहीं पाते। -- विदाई की बेला, पृष्ठ-७, दसवाँ हिन्दी NEFF
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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