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________________ ह रि वं श क था जीवों में प्रत्येक प्रत्येक की सात-सात लाख होती हैं । वनस्पति कायिकों की दश लाख, विकलेन्द्रियों | की छह लाख, मनुष्यों की चौदह लाख, तिर्यंच, नारकी एवं देवों प्रत्येक की चार-चार लाख - इसप्रकार चौरासी लाख योनियाँ हैं; जिनमें अज्ञानी जीव अनन्त काल तक जन्म-मरण करते रहते हैं । इसप्रकार यह असार संसार अनेक दुःखों से भरा है। इन सबमें मात्र मनुष्य पर्याय ही मोक्ष की साधक होने से सारभूत है; परन्तु यह अत्यन्त दुर्लभ है, जो हमें हमारे सद्भाग्य से सहज में उपलब्ध हो गई है; अतः बुद्धिमान व्यक्तियों को संसार की इस दुःखद स्थिति को जानकर इससे विरक्त हो मुक्ति की साधना कर इस मानवजन्म को सार्थक कर लेना चाहिए । अफसोस तो यह है कि जिस लौकिक आजीविका के लिए, भौतिक सुविधाओं के लिए हमें एक क्षण भी बर्बाद करने की जरूरत नहीं है; क्योंकि पूर्वोपार्जित पुण्यानुसार हाथी को मन और चींटी को कन मिलता ही है; उसमें तो हम दिन-रात लगे रहते हैं, २४ घंटे भी कम पड़ते हैं और जिस मुक्ति की साधना के लिए अपूर्व पुरुषार्थ करने और समय देने की जरूरत है, उसके लिए हम समय नहीं दे पा रहे हैं; अतः अपनी दिशा को बदलना चाहिए। दिशा बदलने से ही दशा बदलेगी।" इसप्रकार केवली भगवान की दिव्यध्वनि के सार को सुनकर अन्धकवृष्टि को अपने पूर्वभव जानने की जिज्ञासा हुई। सुप्रतिष्ठित केवली की दिव्यध्वनि द्वारा उनकी जिज्ञासा का भी समाधान हुआ। "भगवान ऋषभदेव के तीर्थकाल में अयोध्यानगरी में राजा रत्नवीर्य राज्य करता था। उसके निष्कंटक राज्य | में बत्तीस करोड़ दीनारों (तत्कालीन सिक्कों) का धनी सुरेन्द्रदत्त सेठ था । सुरेन्द्रदत्त सेठ जिनधर्म का परम श्रद्धावान था । रुद्रदत्त उसका मित्र था । एकबार सेठ धार्मिक अनुष्ठान कराने के लिए रुद्रदत्त को विपुल धनराशि देकर व्यापार के लिए बाहर गया । रुद्रदत्त के मन में बेईमानी आ गई। उसने धार्मिक अनुष्ठान हेतु प्राप्त सेठ के धन को धर्म के अनुष्ठान में न लगाकर जुआ, वैश्यागमन आदि कुकर्मों में बर्बाद कर दिया । धन तो नष्ट हो गया और बुरे व्यसनों की आदत छूटी नहीं तो चोरी आदि गलत उपायों से धन जुटाने के अपराध | करने लगा । उन अपराधों में वह जेल चला गया। जब जेल से छूटा तो वन में भीलों के साथ रहकर लोगों त त्त्वो प दे श २
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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