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________________ ___अतः इनका प्रयोजनभूत ज्ञान भी आवश्यक है। यह सब प्रक्रिया मन्दकषाय में ही संभव है तथा छह द्रव्य, साततत्व आदि की सच्ची समझ और उसके स्वतंत्र परिणमन की सही समझ के लिए इसी जाति के ज्ञान की प्रगटता (क्षयोपशम) का होना भी आवश्यक है। इसे ही शास्त्रीय भाषा में क्षयोपशमलब्धि कहा गया है और कषायों की मंदता को विशुद्धिलब्धि कहा गया है। इन दो लब्धियों के होने पर देव-शास्त्रगुरु के माध्यम से प्राप्त उपदेश भी देशनालब्धि के रूप में ही प्राप्त हो जाता है। यह सब तो सम्यग्दर्शन की पूर्व भूमिका में ही होता है - ऐसी पात्रता बिना आत्मानुभूति रूप सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता; अतः मनुष्य जन्म की सफलता के लिए हमें ऐसी पात्रता तो प्राप्त करना ही है। देखो, जो प्राणी मोह के वश हो संसारचक्र में फंसे रहते हैं - ऐसे कर्मकलंक से कलंकित अनंत जीव हैं, जिन्होंने आज तक त्रस पर्याय प्राप्त ही नहीं की। ये प्राणी चौरासी लाख कुयोनियों तथा अनेक कुल-कोटियों में निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं। कदाचित् हम भी यह अवसर चूक गये तो चौरासी लाख योनियों में न जाने कहाँ फँस जायेंगे, फिर अनन्तकाल तक यह स्वर्ण अवसर नहीं मिलेगा।" इसप्रकार केवलज्ञानी सुप्रतिष्ठित प्रभु ने दिव्यवाणी द्वारा धर्मोपदेश देते हुए धर्म को उत्कृष्ट मंगलस्वरूप प्रतिपादित किया तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित सम्यक्चारित्र के रूप में अहिंसा, संयम, तप आदि का उपदेश दिया । संसार, शरीर और भोगों की क्षणभंगुरता का ज्ञान कराते हुए बारह भावनाओं के बारम्बार चिन्तन करने की प्रेरणा देते हुए कहा - "ये प्राणी कर्मोदय के वशीभूत हो स्थावर तथा त्रस पर्यायों में असंज्ञी (मन रहित) होकर जन्म-मरण के असह्य दुःख सागरों पर्यन्त भोगते हैं। यदि इन दुःखों से मुक्त होना चाहते हो तो एक वीतराग धर्म की आराधना करो जीव ने अनन्तबार निगोद में जा-जाकर एक इन्द्रिय (मात्र स्पर्शन इन्द्रिय) पर्याय में जन्म लिया और एक श्वास में अठारह-अठारह बार जन्म-मरण किया। यह मनुष्यपर्याय अत्यन्त दुर्लभता से प्राप्त हुई है, अत: भोगों में पड़कर पापार्जन करके पुनः संसार चक्र में फँसने का काम मत करो। ये कुयोनियाँ नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक IPEv
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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