________________
साधना और आराधना की दृष्टि से धर्मसाधना को दो वर्गों में बाँटा गया है - एक मुनिधर्म तथा दूसरा | गृहस्थ धर्म । गृहस्थधर्म साक्षात् तो स्वर्गादिक अभ्युदय का कारण है और परम्परा से मुक्ति का कारण है | तथा मुनिधर्म मुक्ति का साक्षात् कारण है। __ वस्तुतः मुक्ति तो मुनिधर्म की साधना से ही होती है। मुनि हुए बिना तो तीनकाल में कभी भी मोक्ष की प्राप्ति संभव ही नहीं हैं। अरहन्तपद प्राप्त करने की प्रक्रिया ही यह है कि जो गृहस्थपना छोड़ मुनिधर्म अंगीकार कर निजस्वभाव साधना द्वारा चार घातिया कर्मों का अभाव होने पर अनन्त चतुष्टयरूप विराजमान हुए वे अरहन्त हैं। अरहंत की इस परिभाषा में मुनिधर्म और उसमें भी निजस्वभाव की साधना ही मुख्य है। गृहस्थधर्म तो मात्र एक तात्कालिक समझौता है। जब तक पूर्णरूप से पापों को छोड़ने और निजस्वरूप में स्थिर होने की सामर्थ्य प्रगट नहीं होती तब तक पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत - इसतरह बारह व्रतों का एकदेश पालन करते हुए मुनिधर्म को धारण करने की सामर्थ्य (योग्यता) प्रगट करने का प्रयत्न ही गृहस्थ धर्म है। ज्यों ही कषाय के तीन चौकड़ीजन्य सम्पूर्ण पापभाव और पापप्रवृत्ति छूट जाती हैं त्यों ही जीवन में मुनिधर्म आ जाता है, फिर मुनि होने से कोई नहीं रोक सकता। वैसे तो गृहस्थ धर्म का प्रारंभसम्यग्दर्शन रूप मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी से ही होता है; किन्तु उसके भी पहले सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए अष्ट मूलगुणों का पालन, सात व्यसनों का त्याग और सच्चे वीतरागी देव, निर्ग्रन्थ गुरु तथा स्याद्वादमयी वाणी (जिनवाणी) रूप सच्चे शास्त्र का यथार्थ निर्णय एवं उनका श्रद्धापूर्वक दर्शन, श्रवण और पठन-पाठन अति आवश्यक है। इन साधनों के बिना निजस्वभाव में स्थिरतारूप मुनिधर्म | की साधना/आराधना तथा रत्नत्रयधर्म का प्राप्त होना कठिन ही नहीं असंभव है।
प्रारंभ में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के माध्यम से छह द्रव्यों के स्वतंत्रपने का, साततत्त्व की हेयोपादेयता का, नौ पदार्थ का एवं स्व-पर भेदविज्ञान का ज्ञान तथा परपदार्थों में अनादिकालीन हो रहे एकत्व-ममत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्व की मिथ्या-मान्यता का त्याग भी अनिवार्य है।
EPF av