________________
६८
ह
अ.क
था
कर्मों का क्षय करनेवाले उपसर्गजयी मुनिराज ने - केवलज्ञान प्राप्त कर अर्हन्त अवस्था प्राप्त कर ली ।
'सुप्रतिष्ठित मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई' - यह समाचार जानकर भक्तिभाव से प्रेरित हो उनकी वन्दना के लिए सौधर्म आदि इन्द्रों के समूह तो चारों निकायों के देवों के साथ आये ही, शौर्यपुर का राजा अन्धकवृष्टि भी अपने परिवार और सेना समूह सहित आया। सभी आगंतुक भव्य जीव जब भक्तिभाव सहित वन्दना करके यथास्थान बैठ गये तो भव्यजीवों के भाग्य का निमित्त पाकर भगवान सुप्रतिष्ठित केवली की दिव्यध्वनि के रूप में धर्मोपदेश हुआ ।
उनकी दिव्यध्वनि में आया कि - "तीनों लोकों में त्रिवर्ग (अर्थ, काम एवं मोक्ष) की प्राप्ति धर्म से | ही होती है । इसलिए त्रिवर्ग के इच्छुक प्राणियों को धर्म की साधना / आराधना एवं उपलब्धि करना चाहिए । धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगलस्वरूप है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित अहिंसा, संयम, तप आदि वस्तुस्वभावरूप वीतराग धर्म के आधार हैं। वह वीतराग धर्म ही जीवों को उत्तम शरणभूत है; क्योंकि वह धर्म ही जीवों को उत्तम सुख की प्राप्ति कराता है। उस धर्म से ही पर्याय में वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है ।
वह धर्म छह द्रव्य, सात तत्त्व, वस्तुस्वभाव की समझपूर्वक ही होता है। इन छह द्रव्यों को ही वस्तु कहते हैं। जब तक छह द्रव्य के स्वतंत्र परिणमन का यथार्थ ज्ञान एवं सात तत्त्व या नौ पदार्थों की यथार्थ जानकारी और सही श्रद्धा नहीं होती तब तक वीतराग चारित्ररूप यथार्थ धर्म प्रगट नहीं होता। संयम एवं तप की सार्थकता भी सम्यग्दर्शनपूर्वक ही होती है।
सम्यग्दर्शन में सच्चे देव - गुरु-शास्त्र के स्वरूप का यथार्थ निर्णय और सात तत्त्वों की सच्ची समझपूर्वक यथार्थ श्रद्धा का होना अनिवार्य है ।
वीतरागी देव, निर्ग्रन्थ गुरु और अनेकान्तमय वस्तुस्वरूप की प्रतिपादक स्याद्वादमयी जिनवाणी ही सच्चे-देव-शास्त्र-गुरु की श्रेणी में आते हैं। इनके सिवाय अन्य कोई भी मुक्तिमार्ग में पूज्य एवं आराध्य नहीं है।
105
श