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________________ । इधर राजा मुनिसुव्रतनाथ के पुत्र सुव्रत हरिवंश के स्वामी हुए। उन्होंने समस्त पृथ्वी को तो जीत ही लिया ह | था, साथ ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि आत्मा के अन्तरंग शत्रुओं को भी जीत लिया था; इसप्रकार वे धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ रूप त्रिवर्ग-मार्ग के प्रवर्तक थे। राजा सुव्रत के दक्ष नाम का अत्यन्त कामी और चतुर पुत्र हुआ। वे दक्ष को राज्य का पदभार सौंपकर अपने पिता तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के समीप जाकर दीक्षित हो गये और तपोबल द्वारा उग्र पुरुषार्थ कर अपवर्ग (मोक्ष) को प्राप्त हुए, संसार सागर के दुःखों से मुक्त हो गये। राजा दक्ष को इला' नामक रानी से एलेय नामक पुत्र एवं मनोहारी नाम की पुत्री हुई। जिसप्रकार शुक्ल पक्ष में ज्यों-ज्यों चन्द्र बढ़ता है, उसकी चाँदनी भी बढ़ जाती है; उसीप्रकार एलेय के साथ उसकी बहिन मनोहारी भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयी। जब 'मनोहारी' यौवन अवस्था को प्राप्त हुई तो वह अपने सौन्दर्य से सर्वांग सुन्दर रति को भी लज्जित करनेवाली यथा नाम तथा गुण सम्पन्न हो गई। उसके सौन्दर्य से और की तो बात ही क्या, उसके पिता राजा दक्ष का भी मन विचलित हो गया । वह भी काम के वशीभूत होकर, उसे पत्नी के रूप में पाने की युक्तियाँ सोचने लगा। जब व्यक्ति कामान्ध हो जाता है तो उसका सारा विवेक समाप्त हो जाता है, उसे न्याय-अन्याय तो दिखाई देता ही नहीं, इस जन्म में लोकनिन्दा का भय भी नहीं रहता और परलोक में पाप के फलस्वरूप कुगति के दुःखों को भोगना पड़ेगा, इसकी भी वह परवाह भी नहीं करता। नीतिनिपुण वादीभसिंह सूरि ने कहा भी है - विषयासक्त चित्तानां गुण को वा न नश्यति । न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक् ।। जिनका चित्त विषयों में आसक्त हो जाता है, उनमें न तो विद्वत्ता रहती है, न मनुष्यता, न कोई बड़प्पन | और न वे सत्यवादी ही रह पाते हैं, उनके सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। - 46 FEv
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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