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॥ अपनी पुत्री पर मोहित राजा दक्ष ने अपनी पुत्री मनोहारी के साथ ब्याह रचाने पर जनता का विरोध | न सहना पड़े, एतदर्थ एक कुयुक्ति सोची। एक दिन उसने प्रजा को अपने घर बुलाकर उनसे छल से पूछा
“आप सब पूर्वापर विरोध रहित विचार कर उत्तर दें। हमारी एक समस्या का समाधान करें। आप लोग व्यवहार कुशल हैं, सोच-समझकर ही मार्गदर्शन करेंगे। आप लोग जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेंगे। आप लोग यह बतायें कि - यदि हाथी, घोड़ा, स्त्री आदि कोई वस्तु जो संसार में बहुमूल्य हो, अमूल्य हो और प्रजा के योग्य न हो, प्रजा की सामर्थ्य-शक्ति से बाहर हो तो उसका स्वामी राजा हो सकता है या नहीं?" । यद्यपि प्रजाजनों में कितने ही प्रबुद्ध थे; परन्तु वे राजा के छल को नहीं पहचान पाये। सीधे, सरल लोग कुटिलता की ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। अत: वे लोग बहुत देर तक सोच-विचार कर इसी निर्णय पर पहुँचे कि जो प्रजा के अधिकार या शक्ति से परे हो, प्रजा की हैसियत से बाहर हो, उस पर तो राजा का ही अधिकार बनता है, राजा ही उसका स्वामी हो सकता है; अतः सबने एकमत से कहा कि महाराज! राजा के सिवाय उसका स्वामी और कौन हो सकता है? जिसप्रकार समुद्र हजारों नदियों और उत्तम रत्नों की खान है, इसी कारण वह रत्नाकर कहलाता है, उसीप्रकार राजा भी इस लोक में अमूल्य वस्तुओं का उपभोक्ता है, स्वामी है; अतः समस्त पृथ्वी, जो आपके आधीन है, उसमें उपलब्ध सभी उत्तमोत्तम वस्तुओं के आप ही अधिकारी हैं, उन्हें आप नि:संकोच भोगें।
इसप्रकार राजा दक्ष ने छल-कपट से प्रजा से हाँ में हाँ भराकर उन्हें अपने पक्ष में करके कहा कि - "आप लोगों की जो राय है, वही करूँगा।"
तदनन्तर राजा दक्ष ने अपनी पुत्री के साथ विवाह कर लिया। राजा दक्ष की रानी इला पति के इस कुकृत्य से बहुत रुष्ट हुई, इसलिए उसने पुत्र एलेय को पिता से छुड़ा लिया।
सज्जन लोग भले कामों का ही साथ देते हैं, बुरे कामों का साथ कभी नहीं दे सकते । जब मनुष्य पतित हो जाता है, पाप प्रवृत्ति में पड़ जाता है तो उसका पुण्य भी क्षीण होने लगता है और सब अनुकूल संयोग साथ छोड़ देते हैं; भले ही वह पत्नी एवं पुत्र ही क्यों न हों?