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________________ रत्न बरसने लगे- इन पंचाश्चर्यों को देवों ने चिरकाल तक देखा तथा देवों ने आहारदान देनेवाले वृषभदत्त का सम्मान किया और देवलोक को चले गये। तत्पश्चात् एक वर्ष एक माह का छद्मस्थ काल बिताकर मुनिसुव्रत मुनि ने ध्यानाग्नि द्वारा घातिया कर्मों को दग्ध करके मगसिर मास की शुक्ल पंचमी को केवलज्ञान प्राप्त किया। उस समय समस्त इन्द्रों ने अपने-अपने आसनों से सात-सात डग (कदम) आगे चलकर तथा | हाथ जोड़कर जिनेन्द्र को परोक्ष नमन किया और केवलज्ञान कल्याणक मनाने हेतु वहाँ उपस्थित हुए। सभी ने मिलकर तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ के केवलज्ञान की भक्तिभाव से पूजा की और अपने-अपने स्थान चले गये। समवशरण में विराजमान तीर्थंकर परमात्मा से समक्षविशाख नामक गणधर देव के मन में तीर्थंकर देव की दिव्यध्वनि का सार समझाने का विकल्प उठा, तब उनके उस विकल्प का निमित्त पाकर तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ की दिव्यध्वनि द्वारा द्वादशांग के साररूप अमृत झरने लगा, जिसे सभी श्रोताओं ने अंजुलि भर-भर कर पिया। गणधरदेव ने दिव्यध्वनि का सार संक्षेप में समझाते हुए कहा कि - सम्यग्दर्शन ही एकमात्र धर्मरूप बृहद् वृक्ष की गहरी जड़ है, जिसके आधार पर चारित्ररूप धर्म टिका रहता। तदनन्तर तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ का समवशरण धर्मामृत की वर्षा करता हुआ अनेक देशों में विहार करने लगा। इस धर्मसभा में अठारह गणधर और तीस हजार मुनि थे, पचास हजार आर्यिकायें, एक लाख व्रती/ अव्रती श्रावक एवं तीन लाख श्राविकायें थीं। मुनिसुव्रतनाथ की पूर्ण आयु तीस हजार वर्ष की थी, जिसमें साढ़े सात हजार वर्ष कुमारकाल में, पंद्रह हजार वर्ष राज्यकाल में तथा साढ़े सात हजार वर्ष संयमी/मुनि और केवलीकाल में व्यतीत हुये। आयु के अन्त में सम्मेदाचल (शिखरजी) से कर्मबन्धन से आप मुक्त हुए। मुक्त होने पर पूजन अर्चन द्वारा इन्द्रों ने उनका मोक्षकल्याणक मनाया। F4F To EFFER .
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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