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दीप्ति के धारक सारस्वत आदि लोकान्तिक देव औपचारिक रूप से उन्हें संबोधनार्थ एवं उनके वैराग्य की || अनुमोदना करने आ गये तथा हाथ जोड़कर नमस्कार कर तीर्थंकर के जीव मुनिसुव्रतनाथ के वैराग्य की अनुमोदना कर, उनकी स्तुति करने लगे।
"हे जिनचन्द्र ! सम्यग्ज्ञानरूपी किरणों से मोहरूपी अंधकार के समूह को नष्ट करनेवाले हे नाथ ! आप जयवन्त हों। आपकी आत्मसाधना सफल हो, आप अपने निर्मल अनन्त गुणों से समृद्ध हों। आप भव्य जीवों रूपी कुमुदिनियों को खिलाने के लिए सूर्य समान हैं।
हे त्रिलोकीनाथ ! आप उस धर्मतीर्थ रूप अमृत वर्षा का प्रवर्तन करें, जिससे संसार विषयाग्नि के दुःख से संतप्त प्राणी अपने दाह्य दुःख को दूर कर और समस्त मोहरूप मल को धोकर निर्मल हो सकें तथा शीघ्र संसार सागर से पार होकर सदा के लिए आनन्दस्वरूप मुक्ति को प्राप्त कर लें।"
लौकान्तिक देव इसप्रकार स्तुति और अनुमोदना कर ही रहे थे कि उसी समय नाना विमानों के समूहों से आकाशमार्ग को आच्छादित करते हुए सौधर्म आदि चारों निकाय के देव वहाँ तपकल्याणक महोत्सव मनाने आ गये। उत्साह से भरे सभी देवों और इन्द्रों ने अपनी महोत्सव की सभी औपचारिकतायें पूरी की। विरागी राजा मुनिसुव्रत अपनी प्रभावती स्त्री के पुत्र सुव्रत को राज्यपद पर अभिषिक्त करके पालखी पर विराजमान होकर वन में चले गये। वहाँ कार्तिक शुक्ल सप्तमी के दिन एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ली। सर्वप्रथम केशलोंच किया, इन्द्र ने उन केशों को पिटारे में रखकर विधिपूर्वक क्षीरसमुद्र में क्षेप दिया।
तदनन्तर मुनिराज मुनिसुव्रत आगामी दिन जब आहार की विधि प्रगट करने के लिए कुशाग्रपुरी में आहार लेने के लिए निकले तो वृषभदत्त ने उन्हें विधिपूर्वक खीर का आहार दिया। __आश्चर्य की बात यह थी कि मुनिराज मुनिसुव्रत को आहार हेतु बनाई गयी खीर हजारों लोगों ने खाई; | फिर भी वह खीर समाप्त नहीं हुई। उसी समय पंचाश्चर्य हुए। देव दुन्दुभि बजने लगी, धन्य-धन्य के शब्दों ने समस्त आकाश को व्याप्त कर दिया, सुगन्धित वायु बहने लगी, पुष्पों की वर्षा होने लगी, आकाश से
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