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________________ फिर भी बहुत से दीर्घ संसारी प्राणी स्वयं मृत्यु के भय से रहित हैं। यह बहुत बड़ा आश्चर्य है। लगता | है इनकी शास्त्र रूपी दृष्टि मोहरूपी अंधकार से आच्छादित हो गई है। इसी कारण इस आत्मकल्याणकारी | मार्ग को छोड़कर विषय के गर्त में पड़ रहे हैं।" इसके बाद महाराज मुनिसुव्रत ने राज-सुख भोगते हुए एक दिन नष्ट होते शरदऋतु के मेघों की क्षणभंगुरता को देखा देखते ही उनके अन्दर वैराग्य जागृत हो गया और वे विचार करने लगे “अरे ! यह शरदऋतु का मेघ इतने जल्दी कैसे कहाँ विलीन हो गया ? जान पड़ता है कि विषय-कषायों में लिप्त संसारी प्राणियों को विषयों की क्षणिकता का बोध कराने के लिए ही मानो ये मेघ घुमड़-घुमड़कर शीघ्र लुप्त हो गये हैं। अज्ञानियों को तो यह भी भान नहीं कि इन्हीं क्षणभंगुर मेघों की भाँति ही यह वज्र जैसा सुदृढ़ शरीर भी वृद्धावस्था रूपी आंधी-तूफानों के प्रहारों से नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। अपने शौर्य और प्रभाव द्वारा समस्त पृथ्वी तक को वश में करनेवाले बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी कालचक्र के प्रचण्ड आघातों से चूर-चूर हो जाते हैं। प्राणों के समान प्रिय स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र भी दुर्भाग्यरूपी प्रबल वायु के वेग से सूखे पत्तों की भाँति नष्ट हो जाते हैं। मृत्यु को प्राप्त होकर यत्र-तत्र धूल में मिल जाते हैं। जिसप्रकार ईंधन से अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, हजारों नदियों के पानी से भी समुद्र कभी संतुष्ट नहीं होता, उसीप्रकार संसार के संचित काम-भोग की सामग्री से संसारी जीवों की भोगाभिलाषा कभी तृप्त नहीं होती। इसके विपरीत जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टि एवं इन्द्रियविजयी मानव उन विषयों से व्यावृत्त हो जाते हैं, वे तत्त्वज्ञान की जलधारा से उस विषयाग्नि को बुझा देते हैं। मैं भी इन सारहीन विषयसुखों को छोड़कर क्यों न शीघ्र ही हितरूप मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो जाऊँ ? अब मुझे इन्हें त्यागने में एक क्षण भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।" मैं सर्वप्रथम स्वचतुष्टय के आश्रय से अपने उत्कृष्ट प्रयोजन अनन्त चतुष्टय को सिद्ध करने के पश्चात् पर के हित के लिए यथार्थ धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करूँगा। इसप्रकार मति-श्रुत और अवधिज्ञानरूपी ज्ञान नेत्रों से युक्त स्वयम्भू भावी भगवान मुनिसुव्रतनाथ जब स्वयं प्रतिबुद्ध हो गये तब समस्त इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो गये। उसीसमय निश्चल मनोवृत्ति और श्वेत ॥ २
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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