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प|| गई और उनका मुनिसुव्रत नामकरण कर दिया गया। तत्पश्चात् बालक को माँ की गोद में देकर इन्द्रगण | ह | अपने-अपने स्थान पर चलेगये।
जन्म से ही मति, श्रुत, अवधिज्ञान के धारक बालक मुनिसुव्रत शुक्लपक्ष के चन्द्र की कलाओं की भाँति बढ़ने लगे। युवा अवस्था प्राप्त होने पर नाना अभ्युदयों की धारक सुन्दरतम स्त्रियों का वरण कर उनसे विवाह | रचाया। फिर युवराज मुनिसुव्रतनाथ राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हो गये। वे हरिवंशरूपी आकाश के मानों सूर्य ही थे। जो प्रजारूपी कमलिनियों को खिला रहे थे। अधीनस्थ राजा-महाराजा और देवगण जिनके चरणों की सेवा करते थे- ऐसे महाराज मुनिसुव्रतनाथ ने चिरकाल तक सबप्रकार से राज्य सुख का उपभोग किया।
एक दिन शरद ऋतु के समस्त धान्यों की शोभा से युक्त दिशाओं को देखते-देखते उन्होंने एक ऐसा मेघ देखा, जो चन्द्रवत् सफेद ऐरावत हाथी-सा जान पड़ता था । प्रचण्ड वायुवेग के आघात से उस मेघ से समस्त अवयव नष्ट हो गये। वह आकाश में ही विलीन हो गया। यह देखकर वे विचार करने लगे - अरे ! यह विलीन हुआ शरद ऋतु का मेघ मानो भोगों में लिप्त संसारी प्राणियों को क्षणभंगुरता का संदेश देने ही आया हो और आते ही शीघ्र विलीन हो गया।
वे आगे विचार करते हैं कि “अपने-अपने परिणामों के अनुसार संचित ये साता कर्म और आयु कर्मरूप मेघ भी इसीतरह नि:सार एवं क्षणिक हैं; जिनके कारण ये क्षणिक शरीर व सुख सामग्री के संयोग प्राप्त होते हैं और मृत्युरूपी प्रचण्ड वायुवेग के एक ही झकोरे में सब संयोग नष्ट हो जाते हैं।
शौर्य और प्रभाव के द्वारा सागर पर्यन्त पृथ्वी को जीतनेवाले और विशाल पृथ्वी पर शासन करनेवाले बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं की सत्ता भी काल के प्रचण्ड प्रहारों से ध्वस्त होती हुई दिखाई देती हैं। प्रिय स्त्री तथा सुख-दुःख के साथी मित्र और पुत्र भी दुर्भाग्य रूप प्रलय के प्रकोप से अशुभ कर्मों के उदय आने पर सूखे पत्तों की भांति नष्ट होते देखे जाते हैं। इस संसार में मनुष्यों की तो बात ही क्या, देवों को प्रिय देवांगनाओं को भी वियोग होते देखा जाता है।
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