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दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ भगवान के पश्चात् जब कालक्रम से नौ तीर्थंकर भरत क्षेत्र से जगत के जीवों के हितार्थ धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति कर मोक्ष चले गये और बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत नाथ का जीव स्वर्ग से माता के गर्भ में आने के सन्मुख हुआ, तब गर्भ में आने के छह माह पूर्व से इन्द्र की आज्ञानुसार कुबेर प्रतिदिन राजा सुमित्र के घर रत्नों की वर्षा करने लगा।
कोमल शय्या पर शयन करनेवाली रानी पद्मावती ने इसी बीच रात्रि के अन्तिम समय सोलह स्वप्न देखे। प्रातः उठकर रानी पद्मावती राजा सुमित्र के पास गई और राजा से उन सोलह स्वप्नों का फल पूछा।
महाराजा सुमित्र ने हर्षित होते हुए कहा - हम दोनों को शीघ्र ही तीन जगत के स्वामी जिनेन्द्र भगवान मुनिसुव्रतनाथ के माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा अर्थात् हमारे घर में तीर्थंकर का जीव जन्म लेगा। ___यथासमय गर्भ कल्याणक महोत्सव मनाया गया। तदनन्तर रानी पद्मावती ने माघ कृष्णा द्वादशी की शुभ तिथि में श्रवण नक्षत्र में बिना किसी कष्ट के मनुष्यों के नेत्रों को आनन्ददायक मुनिसुव्रत जिनेन्द्र को पुत्र के रूप में जन्म दिया। बालक तीर्थंकर का जन्म होते ही तीनों जगत के सभी इन्द्रों के आसन और मुकुट कंपायमान हो गये। उन्होंने अपने अवधिज्ञान से जान लिया कि भरतक्षेत्र में तीन लोक के नाथ बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत बालक का जन्म हुआ है। देवदुंदुभियों से सभी देवों को भी यह निश्चय हो गया कि तीर्थंकर बालक का जन्म हुआ है। सभी देव देवेन्द्र तीर्थंकर बालक का जन्मोत्सव मनाने चल पड़े। कुशाग्रपुर से हर्षोल्लासपूर्वक सभी देव-देवेन्द्र जन्माभिषेक के लिये बालक तीर्थंकर को ऐरावत हाथी पर बिठाकर सुमेरु पर्वत पर ले गये। वहाँ पाण्डुकशिला पर स्थित सिंहासन पर तीर्थंकर बालक को विराजमान कर क्षीरसागर के पवित्र प्रासुक जल से १००८ कलशों द्वारा अभिषेक किया गया। नानाप्रकार के स्तोत्रों द्वारा स्तुति की