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किया जा सकता है । पर यह जीव अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर मोह-राग-द्वेष रूप विकारी भावों | को करता है, अतः दुःखी है । दुःख के कारण कर्म नहीं हैं ?
जब यह आत्मा अपने को भूलकर स्वयं मोह-राग-द्वेष भावरूप विकारी परिणमन करता है, तब कर्म का उदय उसमें निमित्त कहा जाता है। कर्म आत्मा को जबरदस्ती विकार नहीं कराते हैं ।
पुनः प्रश्न - "यह निमित्त क्या होता है ?"
उत्तर - "हे राजन् ! तुम यह क्या सोच रहे हो ? क्या निमित्त भी नहीं जानते ? जब पदार्थ स्वयं कार्यरूप परिणमे, तब कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिस पर आ सके उसे निमित्त कारण कहते हैं । अत: जब आत्मा स्वयं अपनी भूल से विकारादि रूप (दुःखादिरूप) परिणमे, तब उसमें कर्म को निमित्त कहा जाता है।"
"यह तो ठीक है कि यह आत्मा अपनी स्वयं की भूल से दुःखी है, ज्ञानावरणादि कर्मों के कारण नहीं । पर वह भूल क्या है ?"
दिव्यध्वनि में आया - " अपने को भूलकर पर में इष्ट और अनिष्ट कल्पना करके मोह-राग-द्वेष रूप भावकर्म (विभावभावरूप परिणमन) करना ही आत्मा की भूल है । "
पुनः प्रश्न उठा - " भावकर्म क्या होता है ?"
दिव्यध्वनि में आया - "कर्म के उदय में यह जीव मोह-राग-द्वेष रूपी विकारी भाव करता है, उन्हें भावकर्म कहते हैं और उन मोह-राग-द्वेष भावों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणा (कर्मरज ) कर्मरूप परिणमित होकर आत्मा से सम्बद्ध हो जाती हैं, उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं ।
पुनः प्रश्न - तो कर्मबंध के निमित्त, आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष भाव भावकर्म हैं और कार्माण वर्गणा का कर्मरूप परिणमित रजपिण्ड द्रव्यकर्म ?
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