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________________ है और बंध का एकदेश अभाव सो निर्जरा है, अत: इनको जाने बिना इनको छोड़ संवर निर्जरा रूप कैसे प्रर्वते ? जिन मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्म आते हैं, उन मोह-राग-द्वेष भावों को तो भावास्रव कहते हैं। उसके निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वयं आना द्रव्यास्रव है। इसीप्रकार आत्मा का अज्ञान, मोह-राग-द्वेष, पुण्य-पाप आदि विभाव भावों में रुक जाना सो भावबंध है और उसके निमित्त से पुद्गल का स्वयं कर्मरूप बंधना सो द्रव्यबंध है। पुण्य-पाप के विकारी भाव (आस्रव) को आत्मा के शुद्ध (वीतरागी) भावों से रोकना सो भावसंवर है और तदनुसार नये कर्मों का आना स्वयं रुक जाना द्रव्यसंवर है। इसीप्रकार ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा के लक्ष्य के बल से स्वरूपस्थिरता की वृद्धि द्वारा आंशिक शुद्धि की वृद्धि और अशुद्ध (शुभाशुभ) अवस्था का आंशिक नाश होना सो भावनिर्जरा है और उसका निमित्त पाकर जड़ कर्म (द्रव्यकर्मों) का अंशत: खिर जाना सो द्रव्यनिर्जरा है। ___ अशुद्धदशा का सर्वथा सम्पूर्ण नाश होकर आत्मा की पूर्ण निर्मल पवित्र दशा का प्रकट होना भावमोक्ष है और निमित्त कारण द्रव्यकर्म का सर्वथा नाश (अभाव) होना सो द्रव्यमोक्ष है। उक्त सात तत्त्वों को भलीभांति जानकर एवं समस्त परतत्त्वों से दृष्टि हटाकर अपने आत्मतत्त्व पर दृष्टि ले जाना ही सम्यग्दर्शन है और यही सच्चा सुख प्राप्त करने का सच्चा उपाय है। इसके विपरीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र ही चार गति में भटकने का कारण है। प्रश्न - यह आत्मा दुःखी क्यों है ? आत्मा का हित क्या है ? कहा जाता है कि ये अष्टकर्म ही दुःखदायी हैं, इस संदर्भ में आठ कर्मों का सामान्य स्वरूप बतायें। दिव्यध्वनि में समाधान आया - आत्मा का हित निराकुल सुख है, वह आत्मा के आश्रय से ही प्राप्त | FFEE EFFERE
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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