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भगवान शीतलनाथ ने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा जो तत्त्वज्ञान दिया, यह वही तत्त्वज्ञान था जो उनके पूर्व और बाद में अन्य तीर्थंकर दे रहे हैं। इन चौबीस तीर्थंकरों ने कुछ भी नया नहीं कहा, जो अनादि-निधन छह द्रव्यों का स्वतंत्र परिणमन, सात तत्त्वों का स्वरूप, स्व-संचालित विश्वव्यवस्था आदि का उपदेश चला | आ रहा है। वही सब तीर्थंकरों की वाणी में आता है। जो जीव उनकी दिव्यध्वनि के सार को समझकर तदनुसार श्रद्धान-ज्ञान और आचरण करते हैं, वे अल्प काल में ही सांसारिक दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
“संसार में समस्त प्राणी दुःखी दिखाई देते हैं और वे दुःख से बचने का उपाय भी करते हैं; परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्वों की सही जानकारी एवं श्रद्धा के बिना दुःख दूर नहीं होता। दुःख दूर करना और सुखी होना ही इस जीव का सच्चा प्रयोजन है और ऐसे तत्त्व जिनकी सम्यक् श्रद्धा और ज्ञान बिना हमारा दुःख दूर न हो सके और हम सुखी न हो सकें, उन्हें ही प्रयोजनभूत तत्त्व कहते हैं । तत्त्व माने वस्तु का सच्चा स्वरूप । जो वस्तु जैसी है, उसका जो भाव, वही तत्त्व है। वे तत्त्व सात होते हैं।
ज्ञान-दर्शनस्वभावी आत्मा को जीवतत्त्व कहते हैं। ज्ञान-दर्शन स्वभाव से रहित तथा आत्मा से भिन्न समस्त द्रव्य (पदार्थ) अजीवतत्त्व कहलाते हैं। पुद्गलादि समस्त पदार्थ अजीवतत्त्व हैं।
इन शरीरादि सभी अजीव पदार्थों से भिन्न चेतनतत्त्व ही आत्मा है। वह आत्मा ही मैं हूँ, मुझसे भिन्न पुद्गलादि पाँच द्रव्य अजीव हैं।
सामान्य रूप से तो जीव-अजीव दो ही तत्त्व हैं। आस्रवादिक तो जीव-अजीव के ही विशेष हैं; किन्तु यहाँ तो मोक्ष का प्रयोजन है। अत: आस्रवादि पाँच पर्यायरूप विशेष तत्त्वों को भी जानना जरूरी है। उक्त सातों के यथार्थ श्रद्धान बिना मोक्षमार्ग नहीं बन सकता है; क्योंकि जीव और अजीव को जाने बिना अपने पराये का भेद-विज्ञान कैसे हो? मोक्ष को पहिचाने बिना और हित रूप माने बिना उसका उपाय कैसे करे? मोक्ष का उपाय संवर निर्जरा है, अत: उनका जानना भी आवश्यक है तथा आस्रव का अभाव सो संवर |
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