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________________ । भावना से पृथ्वी पर उतरा । उस समय आर्य विद्याधर अपनी विद्याधरी मनोरमा (पूर्वभव की वनमाला) के साथ हरिवर्ष क्षेत्र में क्रीड़ा करता हुआ इन्द्र के समान सुशोभित हो रहा था । उस विद्याधर नवदम्पति को देखते ही उस (वीरक सेठ के जीव) देव ने अपनी स्वाभाविक अखण्ड माया से उसकी समस्त विद्यायें हर लीं और उसे स्मरण दिलाया कि अरे! परस्त्री को हरने वाले राजा सुमुख ! क्या तुझे इस || समय उस 'वीरक वैश्य' का स्मरण है? अरी ! अपने शीलव्रत को खण्डित करनेवाली वनमाला! तुझे अपने पति 'वीरक वैश्य' की याद है? मैं वही वीरक वैश्य का जीव हूँ, जो तपश्चरण करके प्रभुता और वैभव सम्पन्न देव हुआ हूँ और तुम दोनों मुनिराज के आहारदान तथा उनके उपदेशों के अनुसार आचरण करके विद्याधर हुए हो । तुम दोनों ने पूर्वभव में मुझे जो दुःख दिया था, उसे मैं भूलना चाहकर भी नहीं भूल पा रहा हूँ इसलिए मैंने तुम्हारी विद्यायें नष्ट करके आत्मतुष्टि प्राप्त करने की कोशिश की है और ऐसा करके तुम्हें और अन्य पापियों को भी यह सबक सिखाना चाहता हूँ कि भविष्य में कोई ऐसी भूल कभी नहीं करे । दूसरों को दुःख पहुँचा कर जगत में कोई सुखी नहीं रह सकता । अपराधी को अपने अपराध का दण्ड तो भुगतना ही चाहिए; अन्यथा लोक में अराजकता भी तो फैल जायेगी।" ऐसा कहकर उस देव ने दम्पति युगल का अपहरण कर उन्हें अपने विमान में बिठाकर दक्षिण भरत क्षेत्र की ओर आकाश में लेकर उड़ गया; परन्तु संयोग से उसीसमय चम्पापुरी के राजा चन्द्रकीर्ति का मरण हो चुका था। अतः उस देव ने उस आर्य विद्याधर को हृदय की उदारता से प्रेरित हो यहाँ लाकर चम्पापुरी का राजा बना दिया। इसतरह देव ने उनकी विद्यायें नष्ट कर दण्डित भी कर दिया और चम्पापुरी का राजा बनाकर उसे कृतार्थ भी कर दिया, उस पर उपकार भी कर दिया। उस विद्याधर दम्पत्ति ने अपनी पूर्व भव की भूल का अहसास करते हुए पंख कटे पक्षियों की भाँति आकाश में चलने में असमर्थ हो जाने पर भी आकाश गमन की इच्छा छोड़कर पृथ्वी पर रहने में ही संतोष धारण किया। FFEE EFFERE
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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