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________________ कारक ? “जो प्रत्येक क्रिया के प्रति प्रयोजक हो, जो क्रिया-निष्पत्ति में कार्यकारी हो, क्रिया का जनक हो; उसे कारक कहते हैं। "करोति क्रियां निवर्तयति इति कारकः" यह कारक का व्युत्पत्यर्थ है। तात्पर्य यह है कि जो किसी न किसी रूप में क्रिया व्यापार के प्रति प्रयोजक हो, कार्यकारी हो, वही कारक हो सकता है अन्य नहीं; कारक के छह भेद होते हैं। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण। ये छहों क्रिया के प्रति किसी न किसी प्रकार से प्रयोजक हैं, कार्यकारी हैं, अत: इन्हें कारक कहा जाता है। कर्ता कारक :- जो स्वतंत्रता से, सावधानीपूर्वक अपने परिणाम (पर्याय) या कार्य को करे, जो क्रिया व्यापार में स्वतंत्ररूप से कार्य का प्रयोजक हो, वह कर्ता कारक है। प्रत्येक द्रव्य अपने में स्वतंत्र व्यापक होने से अपने ही परिणाम का स्वतंत्र रूप से कर्ता है। कर्म कारक :- कर्ता की क्रिया द्वारा ग्रहण करने के लिए जो अत्यन्त इष्ट होता है, वह कर्म कारक है। अथवा कर्ता जिस परिणाम (पर्याय) को प्राप्त करता है, वह परिणाम उसका कर्म है। करण कारक :- क्रिया की सिद्धि में जो साधकतम होता है, वह करण कारक है अथवा कार्य या परिणाम के उत्कृष्ट साधन को करण कहते हैं। सम्प्रदान :- कर्म के द्वारा जो अभिप्रेत होता है, वह सम्प्रदान है। या कर्म परिणाम जिसे दिया जाय अथवा जिसके लिए किया जाय वह सम्प्रदान है। अपादान :-जिसमें से कर्म किया जाय वह ध्रुव वस्तु अपादान कारक है। अधिकरण :- जो क्रिया का आधारभूत है, वह अधिकरण कारक है अथवा जिसके आधार से कर्म || (कार्य) किया जाय, उसे अधिकरण कहते हैं। %ASNA S.A4
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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