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॥ सर्व द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में ये छहों कारक एकसाथ वर्तते हैं, इसलिए आत्मा और पुद्गल शुद्ध दशा ह || में या अशुद्ध दशा में स्वयं छहों कारकरूप निरपेक्ष परिणमन करते हैं, दूसरे कारकों की अर्थात् निमित्त कारणों
की अपेक्षा नहीं रखते।
निश्चय से पर-पदार्थों के साथ आत्मा को कारकता का सम्बन्ध नहीं है, जिससे शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिए पर सामग्री को खोजने की आकुलता से परतंत्र हुआ जाय। अपने कार्य के लिए पर की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। अतः पराधीनता से बस हो।
जिज्ञासा - ये विकारी पर्यायें अहेतुक है या सहेतुक?
समाधान - निश्चय से विकारी पर्यायें भी अहेतुक ही हैं; क्योंकि - प्रत्येक द्रव्य अपना परिणमन स्वतंत्र | रूप से करता है। विकारी पर्याय के समय निमित्त रूप हेतु का आश्रय अवश्य होता है, इसकारण व्यवहार से उसे सहेतुक कहा जाता है। परमार्थ से अन्य द्रव्य के भाव का कर्ता-धर्ता नहीं होता, इसलिए जो चेतन के भाव हैं, उनका कर्ता चेतन ही होता है, जड़ नहीं।
इस जीव को अज्ञानभाव से जो मिथ्यात्वादिरूप परिणाम हुए हैं, वे भी चेतन हैं, जड़ नहीं। अशुद्ध निश्चयनय से उन्हें चिदाभास भी कहा जाता है। इस प्रकार वे परिणाम चेतन होने से उनका कर्ता भी चेतन ही है; क्योंकि चेतन कर्म का कर्ता चेतन ही होता है - यह परमार्थ है। इतना विशेष है कि सभी कार्य निमित्त सापेक्ष होने मात्र से उन्हें व्यवहार से सहेतुक कहा जाता है। ___ "जिसप्रकार अपने योग्य (कार्य के अनुकूल) निमित्तरूप में चन्द्र-सूर्य के प्रकाश की उपलब्धि होने पर संध्या की लाली, बादलों के विभिन्न रंग तथा इन्द्रधनुष-प्रभामंडल आदि अनेक प्रकार के पुद्गल स्कंध भेद अन्य कर्ता की अपेक्षा बिना ही उत्पन्न होते हैं, उसीप्रकार निमित्तरूप में अपने योग्य (कर्मबंध के योग्य) जीव परिणाम की निमित्तरूप उपलब्धि होने पर ज्ञानावरणादि अनेक प्रकार के कर्म भी अन्य कर्ता की अपेक्षा बिना ही उत्पन्न होते हैं।"
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