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________________ यह वस्तुव्यवस्था सुन श्रोता गद्गद् हो गये उनके मुँह से सहज ही निकला - "वाह ! यह गुण भी गजब | गुण है। यह द्रव्यों और गुणों के स्वतंत्र अस्तित्व को सुरक्षित रखता है, द्रव्य का द्रव्यत्व और प्रत्येक गुण के स्वतंत्र स्वरूप को कायम रखता है। सचमुच लोक की यह वस्तुव्यवस्था भी बड़ी विचित्र है। सभी द्रव्यों में ये सामान्य गुण विद्यमान हैं जो वस्तु के स्वतंत्र और स्वावलम्बी होने का उद्घोष कर रहे हैं।" और भगवन् ! प्रदेशत्व गुण का क्या स्वरूप है ? "जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य रहता है, उसे प्रदेशत्व गुण कहते हैं।" ६. काश ! सब जीवों को इनका ऐसा यथार्थ ज्ञान हो जावे तो उनका अनन्त पराधीनता का दुःख दूर हुए बिना नहीं रहेगा। इसका सही ज्ञान होने पर हम परद्रव्यों के कर्तृत्व की चिन्ता से सदा के लिए मुक्त हो सकते हैं। ___ यद्यपि अपने में ऐसी कोई योग्यता नहीं है कि पर में कुछ किया जा सके; परन्तु यदि किसी की भली होनहार हो तो निमित्त तो बन ही सकते हैं; अत: भूमिका के विकल्पानुसार प्रयत्न करने में हानि भी क्या है?" अत: प्रयत्न तो करना ही चाहिए। षट्कारकों का स्वरूप जिज्ञासु को मन में जिज्ञासा हुई - ये षट्कारक क्या हैं, इनका मोक्षमार्ग की उपलब्धि में क्या उपयोग है ? हे भव्य ! निज कार्य के षट्कारक निजशक्ति से निज में ही विद्यमान हैं; किन्तु मिथ्यामान्यता के कारण अज्ञानी अपने कार्य के षट्कारक पर में खोजता है। यही मिथ्यामान्यता राग-द्वेष की जननी है। अत: कारकों का परमार्थ स्वरूप एवं उनका कार्य-कारण सम्बन्ध समझना अति आवश्यक है। ‘अविनाभाव' वश जो बाह्यवस्तुओं में कारकपने का व्यवहार होता है, वह वस्तुतः अभूतार्थ है। जैसे कि - परद्रव्य की उपस्थिति के बिना कार्य न हो। जैसे - घट कार्य में कुंभकार, चक्र, चीवर आदि। VENEFF 0
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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