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| उत्पन्न होता है। इस अपेक्षा वह तीन प्रकार का है तथा निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का
है। सात तत्वों का अपने-अपने लक्षणों से श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। | जीवतत्व ! जीव का लक्षण उपयोग है। वह उपयोग आठ प्रकार का है। मति, श्रुत, अवधि - ये तीन सम्यक् एवं मिथ्यारूप होते हैं। ये छः हुए तथा मनःपर्यय और केवलज्ञान मात्र सम्यक् ही होते हैं, इसप्रकार सब मिलाकर उपयोग के आठ भेद हुए।
इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सांसारिक सुख-दुःख - ये सब चिद्विकार हैं, भगवान आत्मा अनादि-अनंत है, विज्ञानघन है, अनंतगुण एवं अनन्त शक्तियों से सम्पन्न है। ये ही जीव की पहचान है। जीव स्वयं द्रव्यरूप है, ज्ञाता-दृष्टा है, कर्ता-भोक्ता है, उत्पाद-व्ययरूप है, असंख्यातप्रदेशी है, गुणों का समुदाय है, संकोचविस्तार रूप है। अपने शरीर प्रमाण है। वर्णादि बीस गुणों से रहित है।
यह जीव जगत में गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, सम्यक्त्व, लेश्या, दर्शन संज्ञित्व, भव्यत्व और आहार - इन चौदह मार्गणाओं में खोजा जाता है तथा मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों से इसका कथन किया जाता है।
प्रमाण, नय, निक्षेप और निर्देश आदि से संसारी जीव का तथा अनन्तज्ञान आदि से मुक्तजीव का निश्चय किया जाता है।
वस्तु के अनेक पक्ष होते हैं, उनमें अन्य सबको गौण रखकर किसी एक को मुख्य करके कथन करना नामनय उसका है। इसके द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दो भेद हैं। इनमें द्रव्यार्थिक नय वस्तु के यथार्थस्वरूप को कहता है और पर्यायार्थिक मात्र क्षणिक पर्याय को अपना विषय बनाता है, अत: उसे अयथार्थ कहते हैं। ये ही दो मूलनय हैं। दोनों परस्पर सापेक्ष हैं।
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय इन्हीं के भेद हैं। इनमें प्रारंभ के तीन नय द्रव्यार्थिक नय के भेद हैं तथा ये सामान्य को विषय करते हैं। शेष चार पर्यायार्थिक नय के भेद हैं और ये विशेष को विषय करते हैं।
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