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नैगमनय :- जो नय अनिष्पन्न पदार्थ के संकल्पमात्र को ग्रहण करता है, वह नैगमनय है। जैसे - कोई || भात पकाने के लिए ईंधन-पानी इकट्ठा कर रहा है उससे पूछा जाय कि क्या कर रहे हो? और वह कहे 'भात बना रहा हूँ।' यद्यपि अभी केवल भात बनाने का संकल्प मात्र किया है, भात बना नहीं है। फिर
भी भात बनाने के संकल्प की अपेक्षा से उसका यह कथन सत्य है। | संग्रहनय :- अनेक गुण भेद और पर्यायों से सहित वस्तु को एक रूप ग्रहण करना संग्रहनय है। जैसे - अनेक पदार्थो को सत् की अपेक्षा एक द्रव्यरूप कहना।
व्यवहारनय :- संग्रहनय के विषयभूत सत्ता आदि पदार्थों में विशेषरूप से भेद करना व्यवहारनय है। व्यवहारनय द्रव्य सत्ता में भेद करता-करता उसे अन्तिम भेद तक ले जाता है।
ऋजुसूत्रनय :- पदार्थ की भूत-भविष्यत पर्याय को वक्र और वर्तमान पर्याय को ऋजु कहते हैं। जो नय मात्र वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है उसे ऋजुसूत्रनय कहते हैं। इसके सूक्ष्म व स्थूल के भेद से दो भेद हैं। जीव की समय-समय की पर्याय को ग्रहण करना सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय है और देव, मनुष्य आदि बहुसमयव्यापी पर्याय को ग्रहण करना स्थूल ऋजुसूत्रनय है।
शब्दनय :- जो नय लिंग भेद, कारक भेद, संख्या भेद (वचन भेद) का आदि के व्यभिचार (दोष) को नहीं मानता। तात्पर्य यह है कि यह नय व्याकरण के नियमों के आधीन है, अतः सामान्य नियमों के विरुद्ध प्रयोग होने से आनेवाले दोष को स्वीकृत नहीं करता।
समभिरूढ़नय :- जो शब्दभेद होने पर अर्थभेद स्वीकृत करता है अर्थात् एक पदार्थ के लिए अनेक पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त होने पर उनके पृथक्-पृथक् अर्थ को स्वीकृत करता है, वह - समभिरूढ़नय है। जैसे - लोक में देवेन्द्र के लिए इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्द का प्रयोग होता है; परन्तु यह नय इन सबके पृथक्-पृथक् अर्थ ग्रहण करता है। जो ऐश्वर्य का अनुभव करता वह इन्द्र, जो शक्ति सम्पन्न हो वह शक्र, जो पुरों का विभाग करने वाला हो, वह पुरन्दर है अथवा जो नाना अर्थों का उल्लंघन करके एक अर्थ को | २५
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