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________________ २५२|| का स्थानरूप थी। चारगति, चार कषाय, चार प्रकार के मिथ्यात्वादि चार आस्रवों की निरूपक होने से चार का स्थान थी। पाँच अस्तिकाय का छह द्रव्यों का, सात तत्त्वों का, आठ कर्मों का, नौ पदार्थों का वर्णन करनेवाली होने से क्रमशः पाँच, छः, सात, आठ और नौ के स्थान रूप थी। यह दिव्यध्वनि जहाँ भगवान विराजमान थे, उसके चारों ओर एक योजन के घेरे में इतनी स्पष्ट सुनाई देती थी मानो भगवान मेरे सामने मुझसे ही बोल रहे हैं। दिव्यध्वनि में जगत की अनादिनिधन, स्वतंत्र, स्वाधीन, अहेतुक स्थिति का ज्ञान कराया गया। यह सृष्टि | अहेतुक है अर्थात् किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं हुई है, किसी ने इसे बनाया नहीं है। परिणामिकी हैं - स्वत: सिद्ध है। जीव स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं अपनी भूल से संसार में घूमता है और स्वयं भूल सुधार कर मुक्त होता है। ___अविद्या और रागमय होता हुआ स्वयं संसार सागर में बार-बार जन्म-मरण करता हुआ डूबता-उतरताफिरता है तथा स्वयं ही विद्या और वैराग्य से शुद्ध होता हुआ पूर्ण स्वभाव में स्थित हो सिद्ध हो जाता है। इस अध्यात्म विशेष को प्रगट करने के लिए वह दिव्यध्वनि दीप शिखा के समान थी। जिस प्रकार वर्षा का पानी एक रूप होने पर भी जमीन पर आकर नाना वृक्षों, बेलों और स्थानों में नाना रूप से परिणम जाता है, उसीप्रकार तीर्थंकर की दिव्यध्वनि एक रूप खिरकर पात्रों की योग्यता के अनुसार नानारूप परिणम जाती है। दिव्यध्वनि में आ रहा था कि - सभी जीव दुःख से मुक्त होना चाहते हैं, सुखी होना चाहते हैं, सदा सुखी रहना चाहते हैं, सच्चे सुख को पाने का उपाय एकमात्र आध्यात्मिक अध्ययन और आत्मध्यान से होता है। वह उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समुदाय रूप है। उनमें जीवादि सात तत्त्वों का निर्मल श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन दर्शनमोहरूपी अन्धकार के क्षय, उपशम, क्षयोपशम से REF5 | ERE
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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