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| से युक्त होते हैं, महासंवर सहित होते हैं, सत्ता में स्थित कर्मों के नष्ट करने तथा उदयावली के लाने में समर्थ | होते हैं। यह सब करने के बाद वे पुन: पूर्व शरीर प्रमाण हो जाते हैं। तब (परम) शुक्लध्यान को पूर्ण कर चतुर्थ व्युपरतक्रियानिवर्तीनि या समुछिन्नक्रियनामक शुक्लध्यान को प्राप्त होते हैं।
आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दरूप योग तथा कायबल आदि प्राणों के नष्ट हो जाने से इसे व्युपरतक्रिया या समुच्छिन्नक्रिया कहा गया है।
भगवान नेमिनाथ ने धर्मध्यान के दस भेदों का यथायोग्य ध्यान करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन समीचीन तपश्चरण द्वारा व्यतीत किए। तत्पश्चात् अश्विन शुक्ल प्रतिपदा (एकम) के दिन शुक्लध्यान रूपी अग्नि द्वारा चार घातिया कर्मों को भस्म कर अनंतचतुष्टयमय केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। ____ तीर्थंकर नेमिनाथ को केवलज्ञान होते ही इन्द्रों के आसन और मुकुट कम्पायमान हो गये और तीनों लोकों के इन्द्र केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाने चल पड़े। गिरनारपर्वत की तीन प्रदक्षिणायें देकर खूब उत्साहपूर्वक नेमि जिनेन्द्र का पूजा महोत्सव मनाया।
जब जिनेन्द्र भगवान नेमिनाथ के समोशरण में सब भव्य जीव धर्म सुनने के लिए हाथ जोड़कर बैठ गये, तब वरदत्त गणधरदेव ने जिनेन्द्रदेव से पूछा - "सबका हित किसमें है ? अपना कल्याण करने के लिए हम क्या करें ?" ___ उत्तर में तीर्थंकर नेमिनाथ की दिव्यध्वनि खिरने लगी, जो पुरुषार्थरूप फल को देनेवाली थी और चार | अनुयोगों की एक माता थी। चार गतियों का निवारण करनेवाली थी। एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ और नौ स्थान रूप थीं।
सामान्य रूप से एक जीवतत्त्व का वर्णन करनेवाली होने से एक स्थान रूप थी। श्रावक-मुनि के भेद से दो प्रकार के धर्म का अथवा चेतन-अचेतन और मूर्तिक-अमूर्तिक के भेद से दो द्रव्यों की निरूपक होने से दो का स्थान थी। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रय का वर्णन करने वाली होने से तीन
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