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१. पृथक्त्ववितर्कविचार : इस ध्यान के नाम में तीन शब्द आये हैं - पृथक्त्व - इसका अर्थ नानात्व होता है। वितर्क - इसका अर्थ निर्दोष श्रुतज्ञान (द्वादशांग) और विचार का अर्थ है - अर्थ, व्यंजन (शब्द) | और योगों का संक्रमण होना।
जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है वह अर्थ कहलाता है। उसका प्रतिपादक शब्द व्यंजन है और वचन आदि योग हैं। ___ इसप्रकार जिस ध्यान में द्वादशांग के अर्थ आदि में क्रम से नाना रूप से परिवर्तन हो, संक्रमण हो, वह पृथक्त्ववितर्कविचार नाम का पहला शुक्लध्यान है। यह शुक्लतर लेश्या के बल से होता है। उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी - दोनों गुणस्थानों में होता है।
२. एकत्ववितर्कविचार - जिसमें एक ही अणु द्रव्य या पर्याय विषय बनती है। यह पूर्वधारी के होता है। यह मोहादि घातिया कर्मों का घात करनेवाला है। यह बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में होता है। इसके उपरांत वह केवली हो जाता है।
३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति - जब केवली भगवान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाती है तथा आयु के बराबर ही वेदनीय आदि तीन अघातिया कर्मों की स्थिति अवशिष्ट रहती है तब वे समस्त वचन योग, मन योग और स्थूल काय योग को छोड़कर स्वभाव से ही सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक ध्यान को प्राप्त करने योग्य होते हैं।
४. समुच्छिन्नक्रिया व्युपरतक्रियानिवर्तीनि - जब केवली भगवान की आयुकर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की हो तथा शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति अधिक हो तब वे स्वभाववश अपने आप चार समयों द्वारा आत्मप्रदेशों को फैलाकर दण्डप्रतर, कपाट, प्रतर और लोकपूरण कर तथा उतने ही समयों में उन्हें संकुचित कर सब कर्मों की स्थिति एक जैसी कर लेते हैं।
इस क्रिया के समय उन क्रिया करने वाले जीवों का उपयोग अपने आप में होता है। वे सामायिकभाव ॥ २५
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