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________________ on F5 आभ्यन्तर धर्मध्यान - अपायविचय आदि के भेद से १० प्रकार का है। अपाय, उपाय, जीव, अजीव, || विपाक, विराग, भव, संस्थान, आज्ञा और हेतु । १. अपाय : त्याग का विचार । मन-वचन-काय की चंचल प्रवृति का त्याग कैसे हो? इसका विचार । २. उपाय : पुण्यरूप योग प्रवृत्तियाँ किसप्रकार संभव हैं - ऐसा विचार करना। ३. जीव : अनादि-अनन्त, सादि-सान्त आदि जीव के स्वभाव का चिन्तन । ४. अजीव : अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिन्तन । ५. विपाक : कर्मों के फल का विचार करना। ६. विराग : शरीर अपवित्र है, भोग मधुर विषफल के समान मृत्यु के कारण हैं - इनसे विरक्त होने | रूप चिन्तन। ७. भव : चतुर्गति भ्रमण रूप अवस्था भव है और यह भव दुःखमय है- ऐसा चिन्तन । ८. संस्थान : लोक के आकार का विचार करना। ९. आज्ञा : इन्द्रियों से अगोचर बंध-मोक्षादि में भगवान की आज्ञानुसार चिन्तन करना। १०. हेतु : स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेकर समीचीन मार्ग का चिन्तवन । यह धर्मध्यान चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है, स्वर्ग का साक्षात् एवं मोक्ष का परम्परा कारण है। शुक्लध्यान - जो शौच (पवित्रता) के सम्बन्ध में होता है, वह शुक्लध्यान है। यह शुक्ल एवं परमशुक्ल के भेद से दो प्रकार का है। शुक्लध्यान के चार भेदों में प्रारंभ के दो शुक्ल एवं अन्त के दो परमशुक्ल ध्यान हैं। बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से शुक्लध्यान के भी दो भेद हैं। अब शुक्लध्यान के चार भेदों का अर्थ बताते हैं - 24.44784
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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