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२४०|| की उत्पत्ति न हो - इसप्रकार बार-बार चिन्ता करना । प्रथम प्रकार का पीड़ाचिन्तन आर्तध्यान है। यदि
| अनिष्ट विषय की उत्पत्ति हो जाय तो उसका अभाव किसप्रकार हो - इसका निरन्तर संकल्प-विकल्प करना दूसरा पीड़ाचिन्तन है।
ये आर्तध्यान तिर्यंचगति का कारण हैं और प्रथम गुणस्थान से छठवें गुणस्थान तक पाया जाता है।
रौद्रध्यान :- क्रूर अभिप्राय वाले जीव को रुद्र कहते हैं। उसके जो ध्यान होता है, उसे रौद्रध्यान कहते हैं। यह हिन्सानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द के भेद से चार प्रकार का होता है। जिसको हिंसा आदि में आनन्द आता है, अभिरुचि होती है, वह हिंसानन्द, मृषानन्द आदि रौद्रध्यान है। यह बाह्य व आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है।
(१) क्रूर व्यवहार करना, गाली आदि अशिष्ट (अभद्र) वचन बोलना बाह्य रौद्रध्यान है। (२) अपने आप में पाया जाने वाला हिंसा आदि कार्यों में संरम्भ, समारंभ एवं आरंभ रूप प्रवृत्ति अभ्यन्तर रौद्रध्यान है।
अपनी कल्पित युक्तियों से दूसरों को ठगना मृषानन्द रौद्रध्यान है। प्रमादपूर्वक दूसरों के धन को जबरदस्ती हरने का अभिप्राय रखना स्तेयानन्द रौद्रध्यान है। चेतन-अचेतन परिग्रह के रक्षा का अभिप्राय रखना, ये मेरे है, मैं इनका स्वामी हूँ, इसप्रकार निरंतर चिन्तन करना परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान है। ये रौद्रध्यान तीव्र कृष्ण, नील, कापोत लेश्या के बल से पहले से पाँचवे गुणस्थान तक होता है। स्थूल रूप से इस ध्यान का फल नरकगति कहा है।
धर्मध्यान - बाह्य वस्तुओं और आध्यात्मिक भावों का जो यथार्थ स्वभाव है, वह धर्म कहलाता है। उस धर्म से सहित भाव धर्मध्यान है।
बाह्य धर्मध्यान - शास्त्रों के अर्थ की खोज करना, शीलव्रत का पालन करना, गुणों के समूह में अनुराग ॥ करना, शरीर को निश्चल रखना, व्रतों से युक्त होना - ये धर्मध्यान के बाह्य लक्षण हैं।