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भगवान नेमिनाथ का दीक्षा कल्याणक एवं आत्मसाधना
दीक्षाकल्याणक मनाने के पश्चात् इन्द्र और देवगण तो यथास्थान चले गये और मुनिराज नेमिनाथ व्रत, | समिति, गुप्तियों से सुशोभित हो परिषहों को जीतते हुए रत्नत्रय और तपरूपी लक्ष्मी से मुनिधर्म की साधना करने लगे। आर्त और रौद्र नामक अप्रशस्त ध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान नामक प्रशस्त ध्यान करने लगे ।
पीड़ा को आर्ति कहते हैं। आर्ति के समय जो ध्यान होता है, उसे आर्तध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान | कृष्ण, नील व कापोत लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है । बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से यह आर्तध्यान | दो प्रकार का है। रोना, दुःखी होना आदि तथा दूसरों की लक्ष्मी देख ईर्ष्या करना, विषयों में आसक्त होना आदि बाह्य आर्तध्यान है ।
पीड़ाचिन्तन ध्यान में अमनोज़ दुःख के बाह्य साधन चेतन और अचेतन के भेद से दो प्रकार के हैं। उनमें मनुष्य आदि चेतन हैं और विष-शस्त्र आदि अचेतन साधन हैं।
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अन्तरंग साधन भी शारीरिक व मानसिक भेद से दो प्रकार के हैं - वातव्याधियाँ वायु के प्रकोप से उत्पन्न उदरशूल, नेत्रशूल, दन्तशूल आदि नाना प्रकार की दुःसह बीमारियाँ शारीरिक साधन हैं। शोक, अरति, भय, उद्वेग विषाद आदि बेचैनी मानसिक दुःख के साधन हैं। सभी प्रकार के अमनोज़-अनिष्ट विषयों
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अपना आर्तध्यान स्वयं वेदन से जाना जाता है और दूसरों का अनुमान से। आभ्यन्तर आर्तध्यान के चार भेद हैं । अभीष्ट वस्तु की उत्पत्ति न होने से चिन्ता करना, अनिष्ट के संयोग से दुःखी होना, चिन्तित रहना, न इष्ट वस्तु का कभी वियोग न हो जाय - ऐसी चिन्ता करना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है ।
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