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अभय घोषणायें प्रगट की गईं, जिससे शत्रुपक्ष की सेनायें निर्भय होकर श्रीकृष्ण की आज्ञाकारणी हो गईं। | दुर्योधन, द्रोण तथा दुःशासन आदि ने संसार से विरक्त हो मुनिराज विदुर के समीप जाकर जिनदीक्षा ले ली। राजा कर्ण ने भी सुदर्शन वन में दमवर मुनिराज के समीप मोक्ष देनेवाली दीक्षा ग्रहण कर ली।
सूर्य अस्त हो गया था और संध्या की लालिमा दसों दिशाओं में फैल गई थी। उससे ऐसा लगने लगा मानो संग्राम में श्रीकृष्ण द्वारा मारे गये जरासंध को देखकर सहृदय सूर्य पहले तो शोक के कारण रोया, इसकारण उसका मुख लाल हो गया, पश्चात् जलाञ्जलि देने को उसने समुद्र में डुबकी लगाई है।
आचार्य कहते हैं कि "ये संसारी प्राणी शुभ कर्म का उदय होने पर बड़े-से-बड़े पुरुषों पर आक्रमण कर विजयश्री प्राप्त करते हैं।" और शुभकर्म का उदय नष्ट होने पर विपत्तियाँ भी भोगते हैं। अतः हे भव्य! मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत रत्नत्रय की आराधना करो।" ___ तीसरे दिन, जब सूर्य उदय हुआ तब यादवों की सेना में सुभटों के घाव अच्छे किए गये एवं मृतकों
का दाह संस्कार किया गया। ___एक दिन राजा समुद्रविजय आदि सभी सभामंडप में श्रीकृष्ण के साथ बैठे वसुदेव की प्रतीक्षा कर रहे | थे। वे कह रहे थे - “वसुदेव पुत्र और पोतों के साथ अब तक नहीं लौटे, उनका कोई समाचार भी नहीं है। उनके हृदय में गाय-बछड़े की भाँति स्नेह उमड़ रहा था। अचानक उसीसमय आकाश में चमकती हुई अपने तेज से दशोंदिशाओं को प्रकाशित करने वाली अनेक विद्याधरियाँ वेगवती नागकुमारी के साथ वहाँ आ पहुँची और कहने लगीं - "आप लोगों को गुरुजनों ने जो आशीर्वाद दिये थे, वे आज सफल हो गये हैं। इधर पुत्र श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को नष्ट किया है और उधर पिता वसुदेव ने विधाधरों को नष्ट कर दिया है। वसुदेव सकुटुम्ब सकुशल हैं।
विद्याधरियों से समाचार सुनकर सब राजाओं ने हर्षित होकर पूछा - वसुदेव ने विद्याधरों को किसप्रकार जीता ?"
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