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नागकुमारी देवी ने कहा - "वसुदेव ने विजयार्द्ध पर्वत पर जाकर अपने ससुर एवं सालों से मिलकर || जरासंध की सहायता के लिए आनेवाले विद्याधरों को रोका। रोकने से जरासंध की सहायता का विचार | छोड़ वे स्वयं युद्ध में संलग्न हो गये और उनमें भयंकर युद्ध हुआ। इसी बीच आकाशवाणी हुई कि वसुदेव
का पुत्र श्रीकृष्ण नौवाँ नारायण हुआ है और उसने अपने सबसे प्रबल शत्रु जरासंध को उसी के चक्र से मार डाला है। यह कहकर देवों ने आकाश से चाँदनी के समान नाना रत्नमयी वृष्टि वसुदेव के रथ पर करनी
आरंभ कर दी। देवों की उक्त वाणी सुनकर शत्रु विद्याधर भयभीत हो गये और जहाँ-तहाँ से एकत्रित हो | वसुदेव की शरण में आने लगे। उन्होंने वसुदेव के पास आकर उनके पुत्रों को प्रद्युम्नकुमार और शम्बकुमार
को अपनी अनेक कन्यायें प्रदान की। हम लोग वसुदेव की प्रेरणा पाकर यह कुशल समाचार सुनाने आपके पास आयी हैं।
नारायण की भक्ति से प्रेरित होकर अनेक विद्याधर राजा नानाप्रकार के उपहार लेकर वसुदेव के साथ आ रहे हैं।
नागकुमारी देवी श्रीकृष्ण को यह समाचार सुना ही रही थी कि आकाश से भेंट लेकर आनेवाले विद्याधरों ने विमानों से उतरकर बलदेव और श्रीकृष्ण को नमस्कार किया तथा नानाप्रकार के उपहार अर्पित किए। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण, बलदेव आदि ने अपने पिता वसुदेव को नमस्कार किया। वसुदेव ने भी दोनों का आलिंगन किया और सबने अपना जन्म सफल माना।
तत्पश्चात् बलदेव और नारायण ने समस्त सेना के साथ पश्चिम की ओर प्रस्थान किया। जरासंध के मारे जाने पर यादवों ने जिस स्थान पर आनन्द-नृत्य किया था वह स्थान आनन्दपुर के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
तत्पश्चात् सब रत्नों से सहित नारायण ने चक्ररत्न की साफ-सफाई कर देव-असुर, मनुष्यों सहित दक्षिण भारत को जीता। लगातार आठ वर्षों तक समस्त राजाओं को जीतकर श्रीकृष्ण कोटिकशिला की ओर गये।
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