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नारायण प्रगट हुआ' इसप्रकार देव कहने लगे।
संग्राम में श्रीकृष्ण को चक्र हाथ में लिए देख जरासन्ध इसप्रकार विचार करने लगा कि "हाय! यह चक्र चलाना भी व्यर्थ हो गया। आज तीन खण्ड के अधिपति शक्तिशाली - अर्द्धचक्री राजा जरासन्ध का पौरुष भी खण्डित हो गया। जब तक दैव का बल प्रबल है, तभी तक चतुरंग सेना, (हाथी, घोड़ा, रथ, | पैदल सेना) काल, पुत्र, मित्र एवं पुरुषार्थ कार्यकारी होते हैं। "मैं बलवान होने का मिथ्या अहंकार कर रहा था। यदि ऐसा नहीं होता तो बड़े-बड़े लोगों से अलंघनीय इन छोटे लोगों के द्वारा क्यों हार जाता? तथा आज जो मेरे द्वारा भी अबंधनीय हो गया, इतना प्रबल हो गया, वह बाल्यकाल में गोकुल में क्लेश क्यों पाता? इसलिए विधि की विडम्बना को धिक्कार है। जो वैश्या की तरह अन्य-अन्य पुरुषों के पास जाने को सदा तैयार रहती हैं - ऐसी लक्ष्मी को भी धिक्कार है।" - ऐसा सोचते-विचारते जरासंध को यद्यपि यह निश्चय हो चुका था कि हमारा मरण काल आ चुका है, तथापि वह प्रकृति से निर्भय होने के कारण श्रीकृष्ण से इसप्रकार बोला - "अरे गोप ! तू चक्र चला!"
जरासन्ध के इसप्रकार कहने पर स्वभाव से विनम्र श्रीकृष्ण ने कहा - "मैं अर्द्धचक्रवर्ती उत्पन्न हो चुका हूँ, इसलिए आप आज से मेरे शासन में रहिए। यद्यपि तुम हमारा अपकार कर रहे हो; तथापि हम नमस्कार मात्र से प्रसन्न हो तुम्हें क्षमा किए देते हैं।"
अहंकार से भरे जरासन्ध ने जोर देकर कहा – “मैं इस चक्र को 'गाड़ी के पहिए' से अधिक नहीं समझता हूँ। तूने कभी बड़प्पन देखा नहीं, इसकारण थोड़ा सा बड़प्पन पाकर अहंकार कर रहा है। देख ! मैं अभी तुझे और तेरे सारे सहायकों को समुद्र में फैंकता हूँ।"
जरासन्ध के यह कठोर वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो उस पर चक्र चला दिया, इससे जरासन्ध क्षणभर में मृत्यु को प्राप्त हो गया।
जरासन्ध को मारकर चक्र वापिस श्रीकृष्ण के हाथ में आ गया। श्रीकृष्ण ने यादवों के मन को हरण करनेवाला पाँचजन्य शंख फूंका। नेमिनाथ और सेनापति अर्जुन ने भी अपने-अपने शंख बजाये । चारों ओर ॥ २३
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