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________________ । माता और पुत्र के सम्बन्ध को जताते हुए जब उसकी इस चेष्टा की निन्दा की तो कनकमाला ने अपनी सारी पूर्व घटना सुनाकर यह बतलाने का प्रयत्न किया कि तुम मेरे उदर से उत्पन्न पुत्र नहीं हो। कनकमाला से अपना सम्बन्ध सुनकर प्रद्युम्न के मन में संशय उत्पन्न हुआ इसके समाधान के लिए वह जिनमन्दिर में विद्यमान अवधिज्ञानी मुनि सागरचन्द्र के पास गया और विनयपूर्वक वन्दना करके अपने पूर्वभव पूछे । पूर्वभव की जानकारी में उसे यह भी ज्ञात हो गया कि वह कनकमाला पूर्वभव में चन्द्राभा थी तथा तुम्हें उससे प्रज्ञप्ति विद्या का लाभ होनेवाला है। प्रद्युम्न ने कामपीड़िता कनकमाला से प्रज्ञप्ति विद्या के विषय में पूछा - कनकमाला ने उत्तर में कहा हे प्रद्युम्न ! यदि तू मुझे चाहता है तो मैं तुझे गौरी और प्रज्ञप्ति नामक विद्यायें देती हूँ। प्रद्युम्न को विद्याओं की चाह थी, अत: उसने मन की बात मन में रखकर ऊपर से यह कह दिया कि 'मैं आपको चाहता हूँ, विद्यायें मुझे दीजिए।' कामपीड़ित व्यक्ति गहराई से अपना हिताहित नहीं सोच पाता, भावुकता में उससे कुछ भी कराया जा सकता है। बस, प्रद्युम्न के इतना-सा कहने पर कनकमाला ने विद्याधरों को दुष्प्राप्य विद्यायें प्रद्युम्न को दे दी। विद्यायें प्राप्त कर प्रद्युम्न ने कहा - पहले अटवी से लाकर आपने मेरी रक्षा कर प्राणदान दिया और अभी विद्यादान दिया। इसतरह प्राणदान और विद्यादान देने से आप मेरी गुरु हैं। इस प्रकार उत्तमवचन कहकर तीन प्रदक्षिणाएँ देकर हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर सामने खड़ा हो गया और बोला - ‘पुत्र या शिष्य के योग्य जो आज्ञा हो मुझे दीजिए।' कनकमाला चुप रह गई और प्रद्युम्न थोड़ी देर रुककर वहाँ से चला गया। कनकमाला क्रोध में आग बबूला हो गई वह सोचती है - 'मैं इसके द्वारा छली गई हूँ अब मुझे इसके लिए कुछ और ही करना पड़ेगा।' कामासक्त क्या-क्या नहीं करता? कनकमाला ने विवेकशून्य हो अपने वक्षस्थल को नाखूनों से लहुलुहान कर लिया, कपड़े फाड़ लिये और पति को अपनी दुर्दशा दिखाते हुए कहा - 'हे नाथ ! यह प्रद्युम्न की करतूत देखो। पति कालसंवर ने पत्नी के प्रपंच पर विश्वास कर लिया और उसने भी अपने ५०० पुत्रों को यह आदेश दे दिया कि - किसी को पता न चले, इसतरह गुप्तरूप से प्रद्युम्न को मार डाला जाये। ॥२२ BE
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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