________________
पिता की आज्ञा पाकर वे फूले नहीं समाये, वे स्वयं ईर्ष्यालु तो थे ही और उसे मार डालना चाहते थे; किन्तु पुण्यवान व्यक्ति का कोई बालबांका भी नहीं कर सकता। इतना विवेक उन्हें नहीं था। उन सबने प्रद्युम्न को मारने में पहले भी कोई कमी नहीं रखी थी; पर नहीं मार पाये । व्यक्ति अपनी खोटी भावना करके स्वयं पाप बांध लेता है, दूसरों का बुरा करना तो किसी के हाथ में है ही नहीं। उसका भला-बुरा तो उसके स्वयं के पुण्य-पाप के परिणामों से होता है। यदि यह बात समझ में आ जाये तो कोई किसी का बुरा चाहेगा ही क्यों? | वे सभी ५०० पुत्र दूसरे ही दिन कालाम्बु नामक वापिका (बाबड़ी) पर गये और प्रद्युम्न को बार-बार प्रेरित करने लगे कि चलो बावड़ी में क्रीड़ा करें। उसीसमय प्रज्ञप्ति विद्या ने प्रद्युम्न के कान में सब बात ज्यों की त्यों कह दी। सुनकर प्रद्युम्न सावधान हो गया और उसने तत्क्षण विद्या के बल से मूल शरीर छिपा कर अपने मायामयी शरीर से बावड़ी में कूद पड़ा। उसके कूदते ही सभी पुत्र उसके ऊपर कूद पड़े, ताकि वह वहीं मर जाये; परन्तु ऐसा नहीं हुआ। प्रद्युम्न ने एक को बचा कर शेष सभी को ओंधा लटका कर कील दिया। एक को पाँच चोटियों वाला विदूषक जैसा बनाकर कालसंवर के पास समाचार देने भेज दिया।
पुत्रों की दुर्दशा का समाचार सुन क्रोधित हुआ कालसंवर युद्ध की तैयारी कर वहाँ पहुँचा । उधर प्रद्युम्न ने भी विद्या के बल से वैसी ही सेना की तैयारी कर ली और युद्ध में भी कालसंवर को हरा दिया। कालसंवर जीवन की आशा छोड़ दौड़ा-दौड़ा कनकमाला के पास आकर प्रज्ञप्ति विद्या माँगी, जिसे वह पहले ही प्रद्युम्न को दे चुकी थी। अत: उसने उत्तर में कहा वह विद्यायें मैं बाल्यकाल में ही दूध के साथ उसे पिला चुकी हूँ।
कालसंवर स्त्री की मायाचारी का अनुमान लगाकर अपना मन मारकर पुन: लड़ने लगा तो प्रद्युम्न ने उसे बांधकर शिला पर रख दिया। इसी बीच में नारदजी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने सब रहस्य खोल दिया।
राजा कालसंवर को बन्धन-मुक्त करते हुए प्रद्युम्न ने उनसे क्षमा माँगी और कहा कि माता कनकमाला ने जो भी किया वह पूर्वकर्म के उदय के वशीभूत होकर किया है। अत: आप उन्हें भी क्षमा कर दें। पाँच सौ कुमारों को भी छोड़ दिया और भातृस्नेह प्रगट करके उनसे भी क्षमा माँगी।।
तदनन्तर रुक्मणी और श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए अत्यन्त लालायित प्रद्युम्न ने कालसंवर से आज्ञा ॥२२