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________________ । श्रीकृष्ण द्वारा पाण्डवों को सर्वश्रेष्ठ पाँच महलों में पृथक्-पृथक् ठहरा दिया गया। पाण्डवों की सजनता की पराकाष्ठा तब दिखाई देती है, जब १२ वर्ष के अज्ञातवास के बाद पुन: हस्तिनापुर पहुँचे तो कौरवों को हर्ष होने के बजाय पुनः क्षोभ होने लगा। पाण्डवों ने जब यह देखा तो वे पुन: दक्षिण की ओर चले गये और द्वारिका पहुँचे। उनके मिलाप से यादवों को भारी हर्ष हुआ और उन्होंने खूब स्वागत किया रहने की उत्तम व्यवस्था की। उस समय पाण्डवों ने ऐसा अनुभव किया कि कौरवों ने हमारा अपकार नहीं, बल्कि उपकार किया है। यदि वे हमारे मिलने पर क्षोभ व्यक्त नहीं करते तो यादवों से हमारी ऐसी मित्रता कैसे होती ? और यह स्नेह और सम्मान कहाँ से मिलता ? सचमुच कौरव हमारे बड़े उपकारी हैं। सज्जन कहते ही उसे हैं जो बुराई में भी भलाई (अच्छाई) खोज लेते हैं। पाँचों पाण्डवों के पूर्वभव संसार के तीव्र भय से भयभीत पाण्डव पल्लवदेश में विहार करते हुए श्री नेमि जिनेन्द्र के समीप पहुँचे एवं प्रदक्षिणा देकर नमन किया पश्चात् समोशरण में दिव्यध्वनि रूपी धर्मामृत का पान कर पाण्डवों ने अपने पूर्वभव जानने की जिज्ञासा प्रगट की। दिव्यध्वनि के अतिशय से उनका इस प्रकार सहज समाधान हुआ। इसी भरतक्षेत्र की चम्पापुरी नगरी में जब कुरुवंशीय राजा मेघवाहन राज्य करता था। तब वहाँ एक सोमदेव नाम का ब्राह्मण रहता था उसकी सोमिला नाम की स्त्री थी और उसके सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति नाम के तीन पुत्र थे। इनका मामा अग्निभूत था। उसकी पत्नी अग्निला थी। दोनों से धनश्री, सोमश्री और नागश्री नाम की तीन कन्यायें हुईं, जो उक्त तीनों भानजों की स्त्रियाँ हुई थीं। वेदविज्ञ सोमदेव ब्राह्मण संसार से विरक्त हो जिनधर्म में दीक्षित हो गया। सोमदत्त आदि तीनों भाई भी जिनधर्म से प्रभावित थे। अत: वे अर्थ और काम पुरुषार्थ की साधना || करते हुए गृहस्थाश्रम में रत हो गये। 44444
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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