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________________ एकबार धर्मरुचि नामक मुनिराज भिक्षा के समय आहार हेतु उनके घर में प्रविष्ट हुए। सोमदत्त ने उठकर | विनयपूर्वक मुनिराज को पड़गाहा । पड़गाहिने के बाद किसी अन्य काम में व्यस्त होने से वह तो चला गया और दान देने के कार्य में नागश्री को नियुक्त कर गया। अपने पूर्वकृत पापोदय से मुनिराज को नागश्री के द्वारा विष मिश्रित आहार मिला; क्योंकि नागश्री मुनियों के प्रति ईर्ष्यालु थी। मुनिराज अपनी मृत्यु निकट जानकर संन्यास मरण कर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुए। नागश्री के इस दुष्कार्य को जानकर वे तीनों भाई सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति बहुत दुःखी हुए और संसार से विरक्त हो उन्होंने वरुण गुरु के समीप दीक्षा धारण कर ली। धनश्री और मित्रश्री ने भी समस्त संसार के सुखों से विरक्त हो गुणवती आर्यिका के समीप दीक्षा धारण कर ली। इस प्रकार वे सब तप की शुद्धि के लिए चारित्र पालन करने के लिए उद्यत हो गये। चारित्र के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात - ये पाँचों भेद हैं। यह चारित्र मोक्ष का साक्षात् साधन है। तप के दो भेद हैं - अन्तरंग और बहिरंग।। ___संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए तथा राग को दूर करने के लिए उपर्युक्त तप श्रेष्ठ साधन हैं। इसीप्रकार के तपों द्वारा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उपासना करने वाले सोमदत्त आदि पाँचों जीव अन्त समय समाधिमरण करके अच्युत स्वर्ग में सामानिक जाति के देव हुए। वहाँ उनकी २२ सागर की आयु थी। अत्यन्त शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले वे देव उत्तम भोग भोगते हुए वहाँ २२ सागर तक रहे। विषमिश्रित आहार देनेवाली नागश्री भी मर कर पाँचवे नरक में सत्तरह सागर की आयु तक महा दुःख भोग कर निकली। वहाँ से निकल कर सर्प हुई। वहाँ पुनः तीन सागर की आयु वाले तीसरे नरक में गई। वहाँ से निकल कर बस-स्थावर पर्यायों में दो सागर तक भटकती रही। तत्पश्चात् चम्पापुरी में एक चाण्डाल की कन्या हुई। पाप के पूर्व संस्कार से उसके शरीर से तीव्र दुर्गन्ध आती थी। इसकारण किसी की भी वह स्नेहपात्र नहीं बन सकी। __ उसी नगरी में सुबाहु वणिक के जिनदेव एवं जिनदत्त नामक दो वैश्यपुत्र रहते थे। जिनदेव के कुटुंबीजनों ने ॥ उस दुर्गन्ध कन्या के साथ उसका विवाह करना चाहा, पर उसे वह विवाह स्वीकृत नहीं था। इसकारण वह सुव्रत || २२ 444 ___ 4
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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