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________________ । अपनी अज्ञातवास की अवधि समाप्त होने पर धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीमसेन आदि पाँचों पाण्डव हस्तिनापुर आकर रहने तो लगे; किन्तु उनका आगमन कौरवों को अच्छा नहीं लगा। दुर्योधन आदि सौ भाई ऊपर से प्रसन्नता का प्रदर्शन करते हुए भी मन ही मन पुनः क्षोभ को प्राप्त होने लगे। भीतर ही भीतर पाण्डवों को परास्त करने के उपाय सोचने लगे । दुर्योधन ने पुन: पहले के समान राज्य के बंटवारे की संधि में दोष निकालना प्रारंभ कर दिया। भीम-अर्जुन उन्हें शान्त करते रहे। स्वच्छ बुद्धि के धारक धीर-वीर एवं दयालु युधिष्ठिर कौरवों का स्वप्न में भी अहित नहीं चाहते थे। इसलिए वे माता तथा भाई आदि परिवार के साथ पुन: दक्षिण दिशा की ओर चले गये और चलते-चलते विन्ध्यवन में पहुँच गये। विन्ध्यवन के आश्रम में रहकर तपस्या करनेवाले मुनिराज विदुर को देखकर उन्होंने प्रणाम किया और स्तुति करते हुए कहा “हे मुनिवर तुम्हारा जन्म ही सफल है जो तुम सम्पदा का मोह त्यागकर महातप कर रहे हो । जिस मार्ग में तत्त्वश्रद्धान रूप निर्मल सम्यग्दर्शन, समस्त पदार्थों को यथार्थ जाननेवाला सम्यग्ज्ञान और आत्मलीनता रूप निर्दोष चारित्र प्रतिपादित है। व्रत, समिति, गुप्ति, इन्द्रिय और कषाय को जीतनेवाले संयम का निरूपण किया है, तुम उस उत्कृष्ट मार्ग में स्थित हो; अत: तुम्हारा जीवन धन्य है।" __इसप्रकार जिनेन्द्रोक्त मुक्तिमार्ग एवं महामुनि विदुर की स्तुति कर युधिष्ठिर आदि सभी बन्धु द्वारिका पहुंचे। जब समुद्रविजय, वसुदेव आदि यादवों को पाण्डवों के आगमन का पता चला तो उन्हें हार्दिक हर्ष हुआ और उन्होंने इनका खूब स्वागत किया। समुद्रविजय आदि दशों भाइयों ने बहिन कुन्ती तथा भानजों को बहुत समय बाद देखा था। नेमिकुमार, श्रीकृष्ण, बलदेव आदि समस्त यादव और प्रजा के सब लोग बहुत सन्तुष्ट हुए। 49244 ___
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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