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२१७|| क्षमायाचना कर यक्ष ने द्रौपदी के प्रति उमड़े मोह के विषय में जिज्ञासा प्रगट की।
मुनि कीचक ने मोह की उत्पत्ति का कारण बतलाते हुए कहा - "मैं पूर्वभव में एक रौद्र परिणामी था, किन्तु मुनि के दर्शन करने से मैं एकदम शान्त परिणामी हो गया और मैं वहाँ से मरणकर कुमारदेव नाम का मनुष्य हो गया । वहाँ से मरकर फिर कुत्ता हो गया । कुत्ता से पुन: एक तापसी के मधु नामक पुत्र हुआ। उस पर्याय में मैं मुनि होकर स्वर्ग गया। मेरी माता इधर-उधर भटकती हुई द्रौपदी हुई है। पूर्वभव के इस मातृस्नेह के संस्कारवश मुझे मोह हो गया था।
देखो, माता बहिन हो जाती है, पुत्री प्रिय स्त्री हो जाती है और स्त्री माता, बहिन, बेटी हो जाती है। आश्चर्य की बात है कि संसाररूपी चक्र के साथ घूमनेवाले जीवों में ऐसे सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहते हैं। इसलिए हे भव्य जीवो! संसार के भोगों से विरक्त हो आत्मकल्याण में प्रवृत्त होओ!" कीचक मुनि से यह संदेश सुनकर यक्ष चला गया।
ध्यान संयोगों पर से संपूर्णतया ज्ञानोपयोग को हटाकर पाँच इन्द्रियों और मन के माध्यम से विकेन्द्रित ज्ञानोपयोग को आत्मा में केन्द्रित करने की, उपयोग को आत्मसन्मुख करने की अंतर्मुखी प्रक्रिया है। इसमें एक शुद्धात्मा के आलम्बन के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। यहाँ तक कि मन-वचन-काय भी, जो कि आत्मा के एकक्षेत्रावगाही हैं, उन तीनों योगों से भी काम लेना बन्द करके जब आत्मा का ज्ञानोपयोग अपने स्वरूप में ही स्थिर हो जाता है, उसे अध्यात्म में आत्मध्यान या निश्चय धर्मध्यान संज्ञा प्राप्त होती है। - इन भावों का फल क्या होगा, पृष्ठ-१३५