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२१३ | ने पहले तो नारी के हावभाव में कीचक को छकाया, लुभाया, उसे कामुक चेष्टायें करने को उकसाया और
| बाद में प्रगट होकर अपनी दोनों भुजाओं से कीचक को दबोच लिया और पृथ्वी पर पटककर उसकी छाती | पर दोनों पैरो से चढ़ गया और मुक्कों के प्रहारों से पीटा और अपमानित किया।
कीचक विषयों की आकांक्षा का प्रत्यक्ष अपमानजनक फल देखकर और दीन-हीन भावनाओं से ग्रसित स्वयं को पाकर उससे अत्यन्त विरक्त हो गया और रतिवर्द्धन मुनिराज के पास जाकर मुनि दीक्षा ले ली। अब मुनिराज कीचक द्वादश अनुप्रेक्षाओं के द्वारा संसार, शरीर और भोगों की क्षणभंगुरता का और आत्मा का स्वरूप विचारते हुए, शास्त्रों का स्वाध्याय करते और भावशुद्धि के द्वारा रत्नत्रय को शुद्ध करने के लिए उद्यम करने लगे। __कीचक के सौ भाइयों ने जब कीचक को वहाँ नहीं देखा तो वे बहुत ही घबराये। उन्होंने जहाँ-तहाँ उसकी खोज की, पर वह कहीं नहीं मिला। उसीसमय उन्हें एक जलती हुई चिता दिखी। किसी ने बोल दिया कि वह कीचक की ही चिता है, यह सुनकर वे सब भाई बहुत ही कुपित हुए। वे सोचने लगे कि कीचक की यह दशा उस शैलन्ध्री के कारण ही हुई है इसलिए वे कुपित होकर भीम को उस चिता में डालने का प्रयत्न करने लगे। किन्तु भीमसेन ने अपनी सुरक्षा हेतु, उनसे संघर्ष करते हुए कीचक के उन सभी भाइयों को जलती हुई चिताओं में झोंक दिया, जिससे वे जलकर भस्म हो गये।
एक दिन कीचक मुनि एकान्त उपवन के मध्य पद्मासन योगारूढ़, निश्चल विराजमान थे। एक यक्ष ने उन्हें वहाँ उस स्थिति में देखा। उनकी परीक्षा करने के लिए वह यक्ष आधी रात में द्रौपदी का रूप धरकर उनके पास पहुँचा और कामुक हावभाव प्रदर्शित करने लगा; परन्तु मुनिराज कीचक उसकी उन क्रियाओं को देखने-सुनने में मानो अंधे एवं बहरे बन गये। वे इन्द्रियों और मन को वश में करके मनशुद्धि करने में तत्पर थे। यह देख यक्ष ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि - हे नाथ ! मुझे क्षमा कीजिए। इसतरह | २१