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जो आत्मशुद्धि प्रकट हुई, उसे निश्चय व्रत कहते हैं और उक्त आत्मशुद्धि के सद्भाव में जो हिंसादि पंच || पापों के त्याग तथा अहिंसादि पंचाणुव्रत धारण करने रूप शुभभाव होते हैं, उन्हें व्यवहार व्रत कहते हैं। | इस प्रकार के शुभभाव ज्ञानी श्रावक के सहज रूप में प्रकट होते हैं।
ये व्रत बारह प्रकार के होते हैं। उनमें हिंसादि पाँच पापों के एक-देश त्यागरूप पाँच अणुव्रत होते हैं। इन अणुव्रतों के रक्षण और उनमें अभिवृद्धिरूप तीन गुणव्रत तथा महाव्रतों के अभ्यासरूप चार शिक्षाव्रत होते हैं।
अणुव्रत :- पाँचों पापों का आंशिकत्याग अणुव्रत है।
१. अहिंसाणुव्रत :-हिंसाभाव के स्थूल रूप में त्याग को अहिंसाणुव्रत कहते हैं। इसे समझने के लिए पहिले हिंसा को समझना आवश्यक है। कषायभाव के उत्पन्न होने पर आत्मा के उपयोग की शुद्धता (शुद्धोपयोग) का घात होना भावहिंसा है और उक्त कषायभाव निमित्त है जिसमें ऐसे अपने और पराये के द्रव्यप्राणों का घात होना द्रव्यहिंसा है। "आत्मा में रागादि दोषों का उत्पन्न होना ही हिंसा है तथा उनका उत्पन्न न होना ही अहिंसा है।"
- पुरुषार्थसिद्धयुपाय : आ. अमृतचन्द्र राग-द्वेषादि भाव न करके, योग्यतम आचरण करते हुए सावधानी रखने पर भी यदि किसी जीव का घात हो जाये, तो वह हिंसा नहीं है। सारांश यह है कि हिंसा और अहिंसा का निर्णय प्राणी के मरने या न मरने से नहीं, रागादि भावों की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति से है।
निमित्त भेद से हिंसा चार प्रकार की होती है :(१) संकल्पी हिंसा (२) उद्योगी हिंसा (३) आरम्भी हिंसा (४) विरोधी हिंसा
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