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___केवल निर्दय परिणाम ही हेतु है जिसमें ऐसे संकल्प (इरादा) पूर्वक किया गया प्राणघात ही संकल्पी || हिंसा है। | व्यापारादि कार्यों में तथा गृहस्थी के आरंभादि कार्यों में सावधानी वर्तते हुए भी जो हिंसा हो जाती है, वह उद्योगी और आरंभी हिंसा है।
अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन आदि पर किए गये आक्रमण से रक्षा के लिए अनिच्छापूर्वक की गई हिंसा विरोधी हिंसा है।
व्रती श्रावक उक्त चार प्रकार की हिंसाओं में संकल्पी हिंसा का तो सर्वथा त्यागी होता है अर्थात् सहज रूप से उसके इस प्रकार के भाव ही उत्पन्न नहीं होते हैं। अन्य तीनों प्रकार की हिंसा से भी यथासाध्य बचने का प्रयत्न रखता है। हिंसा भाव का एकदेश त्याग होने से यह व्रत अहिंसाणुव्रत कहलाता है।
२. सत्याणुव्रत :- प्रमाद के योग से असत् वचन बोलना असत्य है, इसका एकदेश त्याग ही सत्याणुव्रत है। असत्य चार प्रकार का होता है :
(१) सत् का अपलाप (२) असत् का उद्भावन (३) अन्यथा प्ररूपण (४) गर्हित वचन विद्यमान पदार्थ को अविद्यमान कहना सत् का अपलाप है। अविद्यमान को विद्यमान कहना असत् का उद्भावन है।
कुछ का कुछ कहना अर्थात् वस्तु स्वरूप जैसे है वैसा न कह कर अन्यथा कहना अन्यथा प्ररूपण है। जैसे - हिंसा में धर्म बताना।
निंदनीय, कलहकारक, पीड़ाकारक, शास्त्रविरुद्ध, हिंसापोषक, परापवादकारक आदि वचनों को गर्हित | वचन कहते हैं।
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